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ग्रन्थावली]
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अर्थात् उसका कोइ भेद है ही नहीं—वह भेदातीत है। इसलिए उसका भेद जानने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता है। न उसमें बायाँ है, न दाहिना है, न आगे है और न पीछे, न नीचे है और न ऊपर है। उसका कोई रूप भी नहीं है। उसके न माता है, न पिता है। न उसका जन्म होता है और न उसकी मृत्यु होती है। न उसने किसी को (लौकिक अर्थ में) उत्पन्न ही किया है। वह जैसा है उसको वह स्वयं ही जानता है अर्थात् अपने स्वरूप को वह स्वयं ही जानता है। केवल उसी एक परम तत्व की स्थिति है। उसके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। वह परम तत्व नेत्र और वाणी से अगोचर है। वह श्रवण और कर्म का सार है अर्थात उसी के गुणों का श्रवण करना चहिए। उसी का गुणगान श्रवणीय है। और कर्म भी केवल उसकी भक्ति के लिए ही करना चहिए। वचन की सुविधा को ध्यान में रखते हुए उसको सृष्टिकर्त्ता कहा गया है।

अलंकार—(i) सम्बन्धातिशतोक्ति—कोई न लख है बाका भेऊ। नैन.....पार।
(ii) वक्रोक्ति—भेऊ ...केऊ।
(iii) पदमैंत्री—भेऊ केऊ। अरध उरध।
(iv) विभावना की व्यंजना—माई न बाप।
(v) अनन्व्य—वो आनै।
(vi) काव्यलिंग—वीलन...सिरजन हार।

विशेष—'तत्तथा के सिद्धांत का आश्रय लिया गाया है। जगत् के असत् तथा परम तत्व के अवाड् मन गोचर होने का वर्णन है।

(३५)

सिरजनहार नांउ धूं तेरा, भौसागर तिरिबे कूं भेरा॥
जे यहु भेरा रांम न करता, तौ आपै आप आवटि जग मरता॥
राम गुसांई मिहर जु किन्हां, भेरा साजि सत कौं दीन्हां॥

दुःख खड़ण मही मडणा, भगति मुकुति विश्रांम।
बिधि करि भेरा साजिया, धन्या रांम का नाम॥

शब्दार्थ—भेरा = बेडा, नावों या जहाजों का समूह। आवटि = जल कर। मडणा = शोभा के हेतु।

सन्दर्भ—कबीर राम नाम की महिमा का वर्णन करते है।

भावार्थ—हे सृष्टि कर्ता (प्रभु)! आपका नाम ही भवसागर से पार उतरने का जलयान है। यदि राम इस बेडे का निर्माण न करते (यदि आपके नाम का सहारा न होता) तो यह संसार अपनी वासनाओं की अग्नि में स्वयं ही जलकर नष्ट हो जाता। स्वामी राम ने जगत के ऊपर बहुत कृपा की जो नाम-रूपी बेड़ा बनाकर सत-समाज को दे दिया। नाम दुःखों का खण्डन (नाश) करने वाला है और पृथ्वी की शोभा है। यही भक्ति, मुक्ति और परम शांति का हेतु है स्वयं