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ग्रन्थावली]
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विषयाग्नि में जलते हैं और उनको कोई बचाने वाला नहीं होता है। उन्होंने अपने बचाव (अपने उद्धार) का कोई उपाय नहीं किया होता है, क्योंकि वे अपने को बचाने वाले प्रभु को पहचान ही नहीं पाते हैं। जो प्रभु को पहचान लेते हैं। उनका अन्तःकरण निर्मल हो जाता है। जो प्रभु से अपरिचित बने रहते हैं वे आसक्ति की अग्नि में पतंगें के समान जलकर नष्ट हो जाते हैं। हे जीव! तू रामनाम में अपनी लौ लगाकर चित में चेतकर और अपना आत्म बोध जाग्रत कर। कबीर कहते हैं कि जिनकी लौ राम-नाम में लगी होती है, इन्हीं का उद्धार हो पाता है, अर्थात् वे ही भव-सागर में डूबने से बच जाते है।

अलंकार—(i) रूपकातिशयोक्ति—भेरा, जग, राखणहार, पतंगा।
(ii) सागरूपक—सम्पूर्ण पद।

विशेष—संसार-सागर के पार जाने के लिए एक मात्र अवलम्बन राम-नाम ही है। देखें पद स॰ १४९। समभाव के लिए देखें—

बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास।
राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास।

(गोस्वामी तुलसीदास)

(३७)

अरचित अविगत है निरधारा, जाण्यां जाइ न वार न पारा॥
लोक वेद थै अछै बियारा, छाड़ि रह्यौ सबही संसारा॥
जसकर गांउ न ठांउ न खेरा, कैसें गुन बरनू मैं तेरा॥
नहीं तहां रूप रेख गुन बांनां, ऐसा साहिब है अकुलांनां॥
नहीं सो ज्वांन न बिरध नहीं बारा, आपै आप आपनपाँ तारा॥

कहै कबीर बिचारि करि, जिनि को लावै भंग।
सेवौ तन मन लाइ करि रांम रह्या सरवंग॥

शब्दार्थ—खेरा = खेडा, खेत या निवास-स्थान। अकुलाना = जिसका कोई कुल न हो। बिरध = वृद्ध।

सन्दर्भ—कबीरदास परम तत्व को अनिर्वचनीयता का वर्णन करते हैं।

भावार्थ—वह परम तत्व किसी के द्वारा रचा नहीं गया है, उसको कोई जान नहीं सकता है तथा वह किसी अन्य तत्व पर आधारित नहीं है अथवा उसको जानने के लिए कोई साधन उपलब्ध नहीं है। उसका बार-पार आदि-अन्त नहीं है। और न उसको जाना ही जा सकता है। वह लोक और वेद से परे हैं, अर्थात् सामान्य ज्ञान अथवा अन्त ज्ञान किसी के द्वारा उसको नहीं जाना जा सकता है। वह समस्त संसार को छोड़ कर ऊपर उठा हुआ है (निर्लिप्त है।) उसका न कोई गाँव है, न कोई स्थान है और न कोई विशेष निवास स्थान है। हे प्रभु! ऐसे आपका वर्णन में किस प्रकार कर सकता हूँ? उस तत्व का न कोई रूप है, न रेखा है और न कोई वेष ही है। यह स्वामी ऐसा है कि जिसका कोई कुल (वंश) ही