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[कबीर
 

नहीं है। वह न तो युवक है, न वह वृद्ध है और न बालक ही। उस तत्व का अपनत्व अपने आप ही में समाहित है। कबीर विचार पूर्वक कहते हैं कि उस तत्व के स्वरूप को खण्डश मत सोचो। वह तो सर्वव्यापी अखण्ड़ तत्व है। तन-मन लगा कर उसकी सेवा करो। राम सर्वव्यापी है।

अलंकार—(i) सवधातिशयोक्ति—जाण्या जाइ......पारा।
(२) वकोक्ति कैसें.......तेरा।

विशेष—(i) 'नेति नेति' निरूपण की पद्धति है।

(ii) वह तत्व अवर्णनीय इस कारण है—क्योंकि वह देश-काल द्वारा परिच्छिन्न न होने के कारण वाणी की सीमा में नहीं आता है।

(iii) वह स्वगतादि सभी प्रकार के भेदों से शून्य अद्वैत तत्व है। बात ऐसी ही है कि—

केशव कहि न जाहि का कहिए।

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तुलसीदास परिहरै तीन भ्रम सो आपन पहिचानै

(गोस्वामी तुल्सीदास)

(३६)

नहीं सो दूरि नहीं सो नियरा, नहीं तात नहीं सो सियरा॥
पुरिष न नारि करै नहीं क्रीरा, धांम न धांम न ब्यापै पीरा॥
नदी न नाव धरनि नहीं धीरा, नहीं सो कांव नहीं सो हीरा॥

कहै कबीर बिचारि करि, तास़ू़ं लावो हेत।
बरन बिवरजत ह्वै रह्या, नां सो स्यांम न सेत॥

शब्दार्थ—तात = उष्ण (शत्रु)! सियरा = शीतल (मित्र)। क्रीरा = कीड़ा। धाम = धूप। घाम = दुःख। धीरा = धैर्यवान। विरजत = विवर्जित, परे।

सन्दर्भ—कबीर परम तत्व रूप प्रभु को अनिवर्चनीय बताते हैं।

भावार्थ—वह परम तत्व दूर नहीं है (क्योंकि वह हृदयस्थ है), वह पास भी नहीं है (क्योंकि साधना द्वारा भी दुष्प्राप्य है)। न वह उष्ण (शत्रु) है और न शीतल (मित्र) है‌। न वह पुरुष है, और न नारी रुप है। वह इन दोनों में किसी रूप में क्रीड़ा नहीं करता है‌ न तो उसको धूप लगती है और किसी प्रकार की व्यथा ही उसको व्यापती है। न वह नदी है, न नाव है और न वह इन सबको धैर्य पूर्वक धारण करने वाली पृथ्वी ही है न वह काँच (विषय-वासना स्वरूप) है, और न हीरा (सद्वृति स्वरूप) ही है। कबीरदास विचार कर कहते हैं कि रे जीव! तू उस परम तत्व के प्रति अनुराग कर। वह न श्याम है और न श्वेत है। वह सब प्रकार के रंगों से परे है।

विशेष—निर्गुण निराकार ब्रह्म की अनिवर्चनीयता का प्रतिपादन हैं‌। उसको किसी प्रकार के शब्दों में आबद्ध नहीं किया जा सकता है‌।