(३९)
नां वो वारा व्याह बराता, पीय पितंबर स्यांम न राता॥
तीरथ ब्रत न आवै जाता, मन नहीं मोनि बचन नहीं बाता॥
नाद न बिंद गरथ नहीं गाथा, पवन न पांणी संग न साथा॥
कहै कबीर बिचारि करि, ताक हाथि न नाहि।
सो साहिब किनि सेविये, जाकै धूप न छांह॥
शब्दार्थ—वारा = बालक। राता = लाल। गरथ = ग्रन्थ।
सन्दर्भ—कबीरदास परम तत्व को अनिर्वचनीय कहते हैं।
भावार्थ—वह राम रूपी परम तत्व न बालक है और उसने विवाह-बारात ही किया है। न वह पीताम्बरधारी है और न श्याम अथवा लाल रंग का वस्त्र धारण करने वाला है। वह न तीर्थ-व्रत में है और न कही आता-जाता है। वह मन ही मन में मौन रहने वाला भी नहीं है और न वचनों का वाचाल ही। वह न नाद रूप है और न बिन्दु रूप ही है। वह किसी ग्रन्थ अथवा गाथा का विषय भी नहीं है। वह न जल-रूप है और न प्राण रूप ही। उसने इनका कुछ भी सम्पर्क नहीं किया है। कबीरदास विचार पूर्वक कहते हैं कि इस तत्व रूप राम के हाथ-पैर कुछ भी नहीं हैं। रे जीव! तू ऐसे स्वामी की सेवा क्यों नहीं करता है। जिसके लिए न कही धूप है और न कही छाया ही—अर्थात् जो दुःख सुख के सर्वथा परे है।
- अलंकार—(i) छेकानुप्रास—बारा व्याह-बराता, गरव गाथा, पवन पांणी।
- (ii) वक्रोक्ति—किनि सेविये।
विशेष—(i) शैली लाक्षणिक है—धूप-छाँह सदृश प्रयोग।
(ii) कबीर के राम परम तत्व हैं—दाशरथि राम नहीं! इसी कारण वह उनके वाणी-बद्ध लौकिक रूप का निषेध करते हैं—"नावा बारा... राता।" इत्यादि। वह यह भी कह देते हैं कि वाह्याचारों द्वारा वह ग्राह्य नहीं है—"तीरथ......साथा।" उन्होंने तो स्पष्ट कहा है कि—
दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना। राम नाम का मरम न जाना।
(४०)
ता साहिब कै लागौ साथा, दुःख सुख मेटि रह्यौं अनाथा॥
नां जसरथ धरि औतरि आवा, नां लका का राव सतावा॥
देवै कुख न औतरि आवा, ना जसबै ले गोद खिलावा॥
ना वो ग्वालन कै संग फिरिया, गोबरधन ले न कर धरिया॥
बावन होय नहीं बलि छलिया, धरनी बेद लेन उधरिया॥
गंडक सालिकरांभ न कोला, मछ कछ ह्वै जलहि न डोला॥
बद्री बैस्य ग्यान नही लावा, परसरांम ह्वै खत्री न संतावा॥
द्वारामती सरीर न छाड़ा, जगनाथ ले प्यंड न गाड़ा॥