पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/९१६

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है ? अर्थात् कोई कुछ नही कह सकता है । कोई यह भी नही बता सकता है कि किस प्रकार के आचरण द्वारा जीव परम तत्व को प्राप्त कर सकता है । कबीरदास भली प्रकार सोच-विचार कर कहते है कि उस परम तत्व को कहीं दूर मत खोजो । मन मे उसकी स्मृति जगाकर उसका ध्यान करो । वह परम तत्व रूप राम सवंञ व्याप्त है ।

अलकार - घऱोक्ति - को है रहिए ।

विशेष - पूर्व पद के समान ।

(४३)

नाद विद रक इक खेला, आपै गुरु आप ही चेला ।

आपै मत्र आपै मत्रेला, आपै पूजै आप पूजेला ।

आपै गावै आप बजावै, अपना किया आप ही पावै ।

आपै धूप दीय आरती, अप्नी आप लगावै जाती ॥

कहै कबीर विचारि करि, भ्कूठा लोही चांम ।
जो या देही रहित है, सो है रमिता राम ॥

शब्दार्थ - रक = तुच्छ । मत्रेला = मत्र लेने वाला । पूजेला = पूजा प्राप्त करने वाला । जाती = ज्योति ।

सन्दर्भ - कबीरदास द्वैत रहित उस अद्वैत तत्व का वर्णन करते हैं ।

भावार्थ - नाद और बिन्दु की यह सहज साधना तो वास्तव मे एक तुच्छ खेल है । वह स्वयं ही गुरु है और स्वयं ही चेला है । वह स्वयं ही मत्र है और स्वयं ही मत्र लेने वाला है । स्वयं पूजा है और स्वयं पूजित है । वह स्वयं ही गाता है और स्वयं बजाता है । अर्थात् कर्त्ता और भोक्ता वह तत्व ही है। वह आपही धूप, दीप और आरती है तथा आप ही उसमे ज्योति-स्वरुप है । कबीरदास विचार करके कहते है कि रक्त और चम का विभेद व्यर्थ (भ्कूठा) है । जो तत्व देह रहित है, वही वास्तव मे राम है और वही सबमे रमा हुआ है ।

अलंकार - (१) पदमैत्री - गावै, बजावै, पावै ।
(२) विरोधाभास - जो राम ।
वशेष - अद्वैतवाद का प्रभाव स्पष्ट है ।
[७] चौपदी रमैणी
(४४)

ऊकार आदि है यूला, राजा परजा एकहि सूला ॥

हम तुम्ह मांहै एकै लोहू, एकै प्रांन जीवन है मोहू ॥

एकही बास रहै दस भासा, सूतस पातग एकै आसा ॥

एकही जननीं जान्यां संसारा, कौंन ग्यान थै भये निनारा ॥

ग्यांन न पायौ बाबरे, धरी अविद्या मैड ।
सतगुर मिल्या न मुक्ति फल, ताथै खाई बैड ॥

BboyGJD (talk) 12:46, 12 September 2015 (UTC)