पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/९१७

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शब्दार्थ - आदि है मूला = उत्पति का मूल कारण । सूला = व्यथा । लोहू = खून, रक्त। वास = गर्भ वास । बैंड = वैडा, रुकावट ।
संदर्भ - कबीरदास जीवन की एकता का प्रतिपादन करते हैं ।
भावार्थ - ओकार सृष्टि की उत्पति का मूल कारण है । राजा और प्रजा (सम्पूर्ण समाज) को एक ही व्यथा है । हममे और तुममे एक ही प्रकार का रक्त है, एक ही प्राण है, एक ही जीवन है तथा एक ही प्रकार के मोह ने सब को आबध्द कर रखा है । हम सब एक ही प्रकार से गर्भ से दस मास तक रहे हैं । जन्म और मृत्यू के अवसर पर हम तुम सबको एक ही स्थान प्राप्त होता है । सारे संसार को एक ही प्रकार से माता जन्म देती है । फिर भेद होकर सबके अलग-अलग होने का क्या आधार है अथवा किस आधार पर भेद-भाव स्थापित किया जाना चाहिए ? रे पागल जीव, तुम कभी ग्यान प्राप्त नही कर सके । तुमने अपने चारों ओर अविद्या की दीवाल बना रखी है (इसी के कारण ज्ञान तुम्हारे मन-मानस मे प्रवेश नही कर पाता है ।) तुमको सद्गुरु की प्राप्ति नही हुई और मोक्ष नही मिल सकी । इसी कारण विषयो की खाई का अवरोध बना हुआ है ।
(४५)

बालक ह्वै भग द्वारे आवा, भग भुगत भुगतन कूँ पुरिष कहावा ॥

ग्यांन न सुमिर्यो निरगुण सारा,विपयै बिरचि न किया बिचारा ॥

साध न मिटी जनम की, मरन तुराना आइ ।
मन क्रम बचन न हरि भज्या, अकुर बीज नसाइ ॥
सन्दर्भ - कबीर जीव के अज्ञान का वर्णन करते हैं ।
भावार्थ - बालक रूप धारण करके यह जीव योनि-द्वार से बाहर निकला तथा उसने योनि के भोग को ही अपना पुरुषत्व समभ्का । उसने सारतत्व निर्गुण भगवान का कभी भी स्मरण नही किया । उसने भक्ति-भाव पूर्वक कभी भगवान की आराधना नही की । इससे उसकी जीवन की जन्म-मरण-सम्बन्धी बाधायें समाप्त नही हुई - जीने की आकांक्षा पूरी नही हुई और मृत्यु शीघ्रता पूर्वक आ पहुँची । जीव ने मन, कर्म और वचन से भगवान का समरण नही किया जिसमे ससार-ताप के अकुर तथा कर्म के बीज नष्ट हो जाते ।
(४६)
तिण चरि सुरही उदिक जु पाया, द्वारै दूध बछ क़ूँ दीया ॥
बछा चूँखत उपजो न दया, बछा बांजि बिछोही मया ॥
ताका दूध आप दुहि पीया, ग्यांन विचार कुछ नहीं कीया ॥
जे कुछ लोगनि सोई कींया, माला मंत्र बादि ही लीया ॥
पीया दूध रुध्र ह्वै आया,मुई गाइ तब दोष लगाया ॥
बाकस मे चमरां कूं दीन्हीं, तुचा रंगाइ करौती कीन्ही ॥
ले रुकरौती बैठे संगा, ये देखौ पांडे के रंगा ॥

BboyGJD (talk) 13:40, 12 September 2015 (UTC)