पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/९१८

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तिहि रुकरौती पांणी पीया, यह कुछ पांडे अचिरज कीया ॥ अचिरज कीया लोक मै, पीया सुहागल नीर । इद्री स्वारथि सब कीया, बध्या भरम सरीर ॥ शब्दार्थ-तिण=घास फूस । सुरही=सुरभी, गाय । उदिक=पानी । चूखत=धन चुसते हुए । वाकस=वख्शिश, स्वल्प द्रव्य । तुच=त्वचा । सन्दर्भ-कबीर कहते है कि अत्यधिक स्वार्थपरकता के कारण ही जीव दुख भोगते है । भावार्थ-गाय घास-फूस खाकर और पानी पीकर द्वार पर अपने बछडे (बछिया) के लिए दूध देती है । थन चूसते हुए दूध पीते हुए बछडे पर गाय के स्वामी को दया नही आती है । और वह बछडे को अलग बांध देते है । और वह इस प्रकार माँ-बेटे के बीच बिछोह कर देता है । वह बछडे के भाग का दुध दुह कर स्वयं पी लेता है । ऐसा करते हुए वह किसी प्रकार का सोच विचार नही करता है । जैसा सब लोग करते है, वैसा ही पंडित जी भी करते है । वे माला-मव का जप व्यर्थ करते हैं । रक्त से बनने वाले दूध को वे पी जाते है(मानो गाय का रुघिर ही पीते हो) । इससे गाय शक्ति हीन होकर मर जाती है । उसकी मृत्यु का कारण कोई रोग बता देते है । कुछ थोडा सा द्रव्य लेकर वे मरी हुई गाय को चमार के सुपुदं कर देते है । उसी की खाल को रगवाकर मसक तैय्यार करा लेते है । उस मसक बाजे को लेकर सब पंडितों के साथ बैठ जाते है । अब आप ही देखिए कि पवित्रता की दुहाई देने वाले , पंडितजी के क्या ठाठ है ? वे उस मसक का पानी पीते है । पंडितजी का यह कार्य आश्चर्य मे डालने वाला है । (पवित्रता का ढोंग करने वाले) पंडितजी आश्चर्य मे डालने वाला व्यवहार करते है । वे चमडे के बने हुए पुर द्वारा खीचा हुआ ताजी पानी पीते है । कबीर कहते है कि पंडित जी की भांति सब लोग इन्द्रियो की विषयासक्ति के वशीभूत होकर इस प्रकार के कार्य करते है और इस प्रकार शरीर के माया-मोह मे ही बंधे रहते है । अलंकार-अनुप्रास-बछा बाँधि विछोही । विशेष-(१) गौ-सेवा का दम्भ करने वाले किस प्रकार व्यवहार मे गौहत्या के वास्तविक रुप से उत्तरदायी है, इसकी सुंदर भाँकी प्रस्तुत की गई है । पाखण्डी जन पर भी करारा व्यग्य है । (४७) एकै पवन एकही पांणी, करी रसोई न्यारी जांनी ॥ माटी सूं माटी ले पोती, लागी कहौ कहां धूं छोती ॥ धरती लीपि पवित्र कीन्ही, छोति उराय लीक बिचि दीन्ही ॥ थाका हम सूं कहौ बिचारा, क्यू भव तिरिहौ इहि आचारा ॥ ए पांखड जींव के भरमा, मानि अमांनि जीव के करमा ॥ करि आचार जु ब्रम्ह सतावा, नांव बिना सतोष न पावा ॥