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[ गुरुदेव कौ अग
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शब्दार्थ--निहचल = निश्चल । तत = तत्व । निपजी = उपजी । थणा = धना-धनीभूत ।

चौपडि मांड़ी चौहटै, अरध उरध बाजार ।
कहै कबीरा रामजन, खोलौ संत विचार ॥३२॥

संदर्भ--कबीर ने प्रस्तुत अग की साखी १२ एव्ं १६ मे वाणिज्य का उल्लेख किया है । अब प्रस्तुत साखी एवं आगामी साखी मे चौपड़ एवं पासा के खेल का उल्लेख किया । आध्यात्मिक जगत मे चौपड का भिन्न अर्थ होना है ।

भावार्थ--चौराहे पर चौपड़ सुशोभित है । ऊपर नीचे बाजार लगा हुआ कबीर कहते हैं कि सतजन । विवेक पुर्वक इम चौपड के खेल को खेलो ।

विशेष--अरध बाजार ऊपर नीचे चक्रो का बाजारा बिछा हुआ ही शरीर मे पटचक्र है । मूलाचार प्रथम और सहखार अतिप चक्र है ध्यान रुपी मोहरें या गोटो से साधक खेल रहा है प्रत्येक चक्र पर ध्यान केन्द्रिन करके पुन: आगे बढ़ता है । (२) चौपडि... चोहट शरीर रूपी चौरहे पर चौपड बिछी है । खेलौ सत विचार से तात्पर्य है कि सतो ध्यान पूर्वक इस खेल को खोलो ।

शब्दार्थ--माँडी = मडित । चौहटे = चौराहे । अरध अरध = ऊपर-नीचे ।

पासा पकड़या प्रेम का, सारी किया सरीर ।
सतगुर दाव घताइया, खेलै दास कबीर ॥३२॥

संदर्भ--"चौपडि माँडी चौहटै अरध अरध बाजार।" ऐसे बाजार मे काबीर राम जन से उपदेश देते हुए कहते हैं "शेलौ संत विचार"। शरीर रूपी चौपड मे प्रेम का पाना फेंकने क रूपक कबीर ने यहाँ पर बड़ी स्पष्टता के साथ व्यक्त किया है । विगत साखी मे कबीर ने इस खेल को खेलने के लिए सहजन के विवेक पर विश्वास रखे हैं। यहाँ सतगुरु के निदॅशन के अनुमार दाय चलने का आदेश कबीर ने बताया है ।

भावार्थ--शरीर को चौपड पर प्रेम का पाना पकड़ कर, सतगुरु के आदेशानुसार कबीर दाव चल रहा है ।

विशेष--प्रेम का पासा और शरीर का चौपड यही ही यथार्थ और युमिसगत अप्रस्तुत योजना । शरीर के चौपड पर प्रेम के पासे का खेल स्वाभाविक और लौचित्यपूर्ण है। प्रेम के इस खेल मे दाव बचाने वाला या निर्देशन देने वाला सतगुरु ही कुशल गुरु के निर्देशन समप्राप्त हो जाने के कारण शिष्य के लिए परामद का कोइ अवसर नहीं है ।