पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/९२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विश्वास के अभाव मे ससार के भ्रम एव सशय जनित कष्टों का नाश नही होता है । कबीरदास कहत है कि मूल सिध्दात यह है कि भगवान की भक्ति के बिना व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति नही होती है । अंमकार-(१)गूढोबित-लागी***छोती । (२)वक्त्रोवित-क्यू****आचार, क्यू तरिहो । (३) सभग पद यमक-मानि अमानि । (४)रूपक-साच सील का चोका, भाव भगति की सेवा, भवसागर, ससै सूल । विशेष-(१) समाज मे प्रचलित वाम्हाचारो पर करारी चोट है । छुआछूत के नाम पर प्रचलित 'आठ कनौजिया नौ चूल्हे' जैसे मिथ्याचारो पर तीखा व्यग्य है । (२) नाम-स्मरण की महिमा है । (३) कबीर प्रभु-भक्ति के लिए प्रेमा भक्ति (श्रद्धा) और विश्वास को मूल अवलम्वन मानते हैं । समभाव देखे- भवानी शकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणी । याभ्या विना न पश्यन्ति सिध्दा स्वान्त स्यमोश्वरम । (गोस्वामी तुलसीदास) (४)परकीरति मिलि मन न समाई । जीव-सेवा के बिना मन प्रभु-भक्ति मे स्थापित हो ही नही सकता है- सो अनन्य गति जाके मति न टरइ हनुमंत । मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत । (गोस्वामी तुलसीदास) (५)सत्य शील-सत्य शील साघना के आघार स्तम्भ है । इन्ही पर चल कर साघक अपने पथ अग्रसर हो सकता है । घर्म रथ का निरूपण करते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि- सोरज घीरज तेहि रथ चाका । सत्य सील दृढ घ्वजा पताका । (५)कहै कबीर****नही रे मूल । तुलना करें- वारि मथे वरु होहि घृत, सिकता ते बस तेल । बिनु हरि भगति न भव तरिय, यह सिध्दान्त अपेल । तथा- नाहिंन आवत आन भरोसो । वहु मत सुनि वहु पंथ पुराननि जहाँ कहाँ भगरो सो । गुरु कह्यो राम-भजन नीको मोहि लगत राज-डगरो सो । तुलसी बिनु परतीति प्रीति फिरि-फिरि पचि मरै मरो सो । राम-नाम बोहित भाव-सागर चाहै तरन तरो सो । (गोस्वामी तुलसीदास)