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[कबीर की साखी
 

स्तर पर पहुँच कर कबीर ने कहा था कि "तू तू करता तू मय मुझ् मे रही न हूँ। चारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तूं ।" संत मलूकदास् ने भी इसी प्रकार की अनुभुति हो जाने पर लिखा था "हम सवहिन के सबहि हमारे जीव जन्तु मोहिं लगै पियारे ।" इस स्थिति का उद़्भव तब होता है जब साधक की "पच सगी पिव पिव करै , छठा जु सुमिरे-मंन ।" इसी स्थिति मे कबीर ने कहा था "अब मन रामहि ह्वै रह्या , सीस नवावौं काहि।" (२) "अब मन.... काहि "उस परिस्थिति का सूचक है जब साधक अदेव्त् ब्रह्मा मे समाहित हो जाता है । (३)यहाँ पर सावक की उस अवस्था का वर्णन् है जब वह् आन्न्दातिरेक मे उद्घोषित कर उठता है" शिवोऽह्ं । "अह ब्रह्मासी ।"

शब्दार्थ — ह्वै=हो । रह्या=रहा । सीस=शीश ।

तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझमें रही न हूँ ।
वारी फेरी वलि गई, जित देखौ तित तूँ ।६॥

संदर्भ—विगत साखी मे कवि ने उस परिस्थिति का वर्णन किया है, जब "साधक ब्रह्मराधना करता-करता या नाम जप मे इतना अधिक अनुरक्त हो जाता है कि वह ब्रह्माकार या ब्रह्माकार हो जाता है । आत्मा और परमात्मा के मध्य मायाकृत भेद विलीन हो जाता है । प्रस्तुत साखी मे उसी भाव को किंचित अधिक विस्तार और स्पष्टता के साथ अंकित किया गया है ।

भावार्थ—तेरा ध्यान करते-करते मैं 'तू'ही हो गया । मुझमे मेरा पार्थक्य अह या व्यतित्व की मित्रता शेष नही रह गाई ।(फलत:) मेरा बारंबार का आवागमन विनष्ट हो गया । अब तो जिधर देखता हूँ उधर तू ही तू है

विशेष—कबीर की एक बड़ी ही प्रसिद्ध साखी है "लाली मेरे लाल की जित देखू तित लाल । लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल।" प्रस्तुत साखी मैं तू तू करता तूभया का भाव बढ़े ही माधुंर्य पूर्ण शब्दों मे, सरल शैली मे व्यक्त कर दिया गया है । कबीर को साखियो मे भाव साम्य है, पर शब्दों की भिन्नता । (२) मुझ... हूँ से तात्पर्य है कि मेरा व्यह, मेरी पार्थक्य की भावना का लोप हो गया । (३) बारी फेरी... गई से तात्पर्य है कि मेरा आवागमन् समाप्त हो गया ।

शब्दार्थ— तू=तुम=राम । हूँ=अह । वारी=आवागमन ।फेरी=फिर गया, समाप्त हो गया । जित=जिधर । तिन=उधर ।

कबीर निरभै रामजपि, जय लग दीवै वाति ।
तेल घट्या बाती बुझी, (तय) सोवेगा दिन राति ॥१०॥