आज के जैसलमेर के पास त्रिकूट पर्वत पर उन्हें उत्तुंग ऋषि तपस्या करते हुए मिले थे। श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रणाम किया था और उनके तप से प्रसन्न होकर उन्हें वर मांगने कहा था। उत्तुंग का अर्थ है ऊंचा। ऋषि सचमुच बहुत ऊंचे थे। उन्होंने अपने लिए कुछ नहीं मांगा। प्रभु से प्रार्थना की कि "यदि मेरे कुछ पुण्य है तो भगवान वर दें कि इस क्षेत्र में कभी जल का अकाल न रहे।"
"तथास्तु", भगवान ने वरदान दिया था।
लेकिन मरुभूमि का भागवान समाज इस वरदान को पाकर हाथ पर हाथ रख कर नहीं बैठा। उसने अपने को पानी के मामले में तरह-तरह से कसा। गांव-गांव, ठांव-ठांव वर्षा पर सहेज कर रखने की रीति बनाई।
रीति के लिए यहाँ एक पुराना शब्द वोज है। वोज यानी रचना, युक्ति और उपाय तो है ही, सामर्थ्य, विवेक और विनम्रता के लिए भी इस शब्द का उपयोग होता रहा है। वर्षा की बूंदों को सहेज लेने का वोज विवेक के साथ रहा है और विनम्रता लिए हुए भी। यहां के समाज ने वर्षा को इंच या सेंटीमीटर में नहीं, अंगुलों या बितों में भी नहीं, बूंदों में मापा होगा। उसने इन बूंदों को करोड़ों रजत बूंदों की तरह देखा और बहुत ही सजग ढंग से, बीज से इस तरल रजत की बूंदों को संजोकर, पानी की अपनी जरूरत को पूरा करने की एक ऐसी भव्य परंपरा बना ली, जिसकी धवलधारा इतिहास से निकल कर वर्तमान तक बहती है और वर्तमान को भी इतिहास बनाने का वोज यानी सामर्थ्य रखती है।