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है। कुछ अन्य जानकारी श्री मनोहरसिंह राणावत की पुस्तक इतिहासकार मुहणोत नैणसी और उनके इतिहास ग्रंथ, प्रकाशक : राजस्थान साहित्य मंदिर, सोजती दरवाजा, जोधपुर से भी मिल सकती है।

कुओं की जगत पर अक्सर काठ का बना एक पात्र रखा रहता है। इसका नाम ही है काठड़ी। काठड़ी बनवा कर कुएं पर रखना बड़े पुण्य का काम माना जाता है और काठड़ी को चुराना, तोड़ना-फोड़ना बहुत बड़ा पाप। पाप-पुण्य की यह अलिखित परिभाषा समाज के मन में लिखी मिलती है। परिवार में कोई अच्छा प्रसंग, मांगलिक अवसर आने पर गृहस्थ काठड़ी बनवा कर कुएं पर रख आते हैं। फिर यह वहां वर्षों तक रखी रहती है। काठ का पात्र कभी असावधानी से कुएं में गिर जाए तो डूबता नहीं, फिर से निकाल कर इसे काम में लिया जा सकता है। काठ के पात्र में जात-पांत की छुआछूत भी तैर जाती है।

शहरों में कूलरों पर रखे, जंजीर से बंधे दो पैसे के प्लास्टिक के गिलासों से इसकी तुलना तो करें।

अपने तन, मन, धन के साधन

राजस्थान में विशेषकर मरुभूमि में समाज ने पानी के इस काम को गर्व से, एक चुनौति की तरह नहीं, सचमुच विनम्रता के साथ एक कर्तव्य की तरह उठाया था। इसका साकार रूप हमें कुंई, कुएं, टांके, कुंडी तालाब आदि में मिलता है। पर इस काम का एक निराकार रूप भी रहा है। यह निराकार रूप ईंट पत्थर वाला नहीं है। वह है स्नेह और प्रेम का, पानी की मितव्ययिता का। यह निराकार रूप समाज के मन के आगौर में बनाया गया। जहां मन तैयार हो गया वहां फिर समाज का तन और धन भी जुटता रहा। उसके लिए फिर विशेष प्रयास नहीं करने पड़े–वह अनायास होता रहा। हमें राजस्थान

के पानी के काम को समझने में इसके साकार रूप के उपासकों से भी मदद मिली और इसके निराकार रूप के उपासकों से भी।

बोत्सवाना, इथोपिया, तंजानिया, केन्या, मलावी आदि देशों में आज पीने का पानी जुटाने के लिए जो प्रयत्न हो रहे हैं, उनकी जानकारी हमें मलावी देश के जोम्बा शहर में सन् १९८० में हुए एक सम्मेलन की रिपोर्ट से मिली है। रिपोर्ट कुछ पुरानी जरूर पड़ गई है पर आज वहां स्थिति उससे बेहतर हो गई हो–ऐसा नहीं लगता। 'प्रगति' हुई भी होगी तो उसी गलत दिशा में। उस सम्मेलन का आयोजन मलावी सरकार ने कैनेडा की दो संस्थाओं के साथ मिलकर किया था। ये संस्थाएं हैं : इंटरनेशनल डेवलपमेंट रिसर्च सेंटर और कैनेडियन इंटरनेशनल डेवलपमेंट एजेंसी।

कोई सौ देशों में फैले मरुप्रदेशों में पानी की स्थिति सुधारने के प्रयासों की कुछ झलक हमें अमेरिका के वाशिंगटन शहर में स्थित नेशनल एकेडमी ऑफ साईंसेस की ओर से सन् १९७४ में छपी पुस्तक 'मोर वाटर फॉर एरिड लैंड्स; प्रामिसिंग टेक्नालॉजीस एंड रिसर्च अपर्चुनिटीस' से मिली है। इनमें नेगेव मरुप्रदेश (अब इजरायल में है) में वर्षा जल के संग्रह के हजार, दो हजार बरस पुराने भव्य तरीकों का उल्लेख जरूर मिलता है पर आज उनकी स्थिति क्या है, इसकी ठीक जानकारी नहीं मिल पाती। आज तो वहां कंप्यूटर से खेती और टपक सिंचाई का इतना हल्ला है कि हमारे देश के, राजस्थान, गुजरात तक के नेता, सामाजिक कार्यकर्ता उससे कुछ सीखने और उसे अपने यहां ले आने के लिए इजरायल दौड़े जा रहे हैं।

ऐसी पुस्तकों में प्लास्टिक की चादरों से आगौर बनाकर वर्षा जल रोकने की पद्धतियों का बहुत उत्साह से विवरण मिलता है। कहीं मिट्टी पर मोम फैलाने जैसे तरीकों को प्लास्टिक से सस्ता और

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राजस्थान की रजत बूंदें