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'बेहतर' भी बताया जाता है।

उम्दा तरीके उन क्षेत्रों में हैं ही नहीं, ऐसा कहते हुए डर ही लगता है। एक तरीका जरूर मिलता है। वह है खड़े के बजाए आड़े कुएं । ये ईरान, ईराक आदि क्षेत्रों में बनते रहे हैं। इन्हें क्वंटा कहा जाता है। इसमें एक पहाड़ी की तिरछी भूजल पट्टी के पानी को आड़ी खुदाई कर एकत्र किया जाता है।

राजस्थान में यह सब काम अपनी साधना और अपने साधनों से हुआ है और समाज को इसका फल भी मिला है।

सीमेंट के बदले यहां सारा काम गारे चूने से किया जाता रहा है। दोनों की तुलना करके देखें :

गारे-चूने के काम को तराई नहीं चाहिए। सीमेंट में तराई चाहिए लगाने के बारह घंटे के बाद कम से कम चार दिन तक। सात दिन तक चले तो और अच्छा। तराई न मिले, यानी पानी से इसे तर न रखा जाए तो सीमेंट की चिनाई फटने लगती है, उसमें दरारें पड़ जाती हैं।

वैसे तो चूना और सीमेंट एक ही पत्थर से बनते हैं पर इनको बनाने का तरीका इनका स्वभाव भी बदल देता है। सीमेंट बनाने के लिए मशीनों से उस पत्थर की बेहद बारीक पिसाई की जाती है और उसमें एक विशेष रेतीली मिट्टी भी मिला दी जाती है। लेकिन गारा-चूना बनाने के लिए इस चूना पत्थर को पहले ही पीसने के बदले उसे भट्टियों में बुझाया जाता है। फिर गरट या घट्टी में रेत और बजरी के साथ मिलाकर पीसा जाता है।

इस एक ही तरह के पत्थर के साथ होने वाले अलग-अलग व्यवहार उसके स्वभाव को भी बदल देते हैं।

सीमेंट पानी के साथ मिलते ही सख्त होने लगती है। इसे अंग्रेजी में सैटिंग टाईम कहा जाता है। यह आधे घंटे से एक घंटे के बीच माना जाता है। यह प्रक्रिया दो से तीन वर्ष तक की अवधि तक

चलती रहती है। उसके बाद सीमेंट की ताकत उतार पर आने लगती है। सख्त होने, जमने के साथ-साथ सीमेंट सिकुड़ने भी लगती है। किताबें इस दौर को तीस दिन का बताती हैं लेकिन व्यवहार में लाने वाले इसे तीन दिन का मानते हैं। अपने ठीक रूप में सिकुड़कर, सख्त होकर फिर सीमेंट किताब के हिसाब से ४० बरस तक और व्यवहार के हिसाब से ज्यादा से ज्यादा १०० बरस तक टिकती है।

लेकिन चूने के स्वभाव में बहुत धीरज है। पानी से मिलकर वह सीमेंट की तरह जमने नहीं लगता। गरट में ही वह एक-दो दिन पड़ा रहता है। जमने, सख्त होने की प्रारंभिक क्रिया दो दिन से दस दिन तक चलती है। इस दौरान उसमें दरारें नहीं पड़तीं, क्योंकि यह जमते समय सिकुड़ता नहीं, बल्कि फैलता जाता है। इसीलिए सीमेंट की तरह इसे जमते समय तर नहीं रखना पड़ता है। इस दौरान यह फैलता है, इसीलिए इसमें दीमक भी नहीं जा पाती। समय के साथ यह ठोस होता जाता है और इसमें चमक भी आने लगती है। ठीक रख-रखाव हो तो इसके जमने की अवधि, दो-चार बरस नहीं २०० से ६०० बरस तक होती है। तब तक सीमेंट की पांच-सात पीढ़ियां ढह चुकती हैं।

एक और फर्क है दोनों में। चूने का काम पानी के रिसने की गुंजाइश नहीं छोड़ता और सीमेंट पानी को रोक नहीं पाती–हर शहर में बने अच्छे से अच्छे घरों, इमारतों की दीवारें, टंकियां इस बात को जोर से बताती मिल जाएंगी।

इसीलिए चूने से बनी टंकियों में पानी रिसता नहीं है। ऐसे टांके, कुंड, तालाब दो सौ, तीन सौ बरस तक शान से सिर उठाए मिल जाएंगे।

समाज और राष्ट्र के निर्माण में गारे-चूने की, उस काम के बारीक शास्त्र को जानने वाले चुनगरों की; अपने तन, मन और धन के साधन साध सकने वालों की आज भी जगह है।

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राजस्थान की रजत बूंदें