वर्षा कर चुके बादल यानी अपना कर्तव्य पूरा करने के बाद किसी पहाड़ी पर थोड़ा टिक कर आराम करने वाले बादल रींछी कहलाते हैं।
काम में लगे रहने से आराम करने तक बादलों की ऐसी समझ रखने वाला समाज, उन्हें इतना प्यार करने वाला समाज उनकी बूंदों को कितना मंगलमय मंटा रहा होगा?
अभी तो सूरज ही बरस रहा है। जेठ के महीने में कृष्णपक्ष की ग्यारस से नौतपा प्रारंभ होते हैं। ये तिथियां बदलती नहीं, हां, कैलेंडर के हिसाब से ये तिथियां मई महीने में कभी दूसरे तो कभी तीसरे हफ्ते में आती हैं। नौतपा, नवतपा - यानी धरती के खूब तपने के नौ दिन। ये खूब न तपें तो अच्छी वर्षा नहीं होती। इसी ताप की तपस्या से वर्षा की शीतलता आती है।
ओम-गोम, आकाश और धरती का, ब्रह्म और सृष्टि का यह शाश्वत संबंध है। तेज धूप का एक नाम घाम है, जो राजस्थान के अलावा बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश के कई इलाकों में चलता है। पर ओघमो शब्द राजस्थान में ही है - वर्षा से पहले की तपन। इन्हीं दिनों मरुभूमि में बलती यानी लू और फिर रेतीली आंधियां चलती हैं। खबरें छपती हैं कि इनसे यहां का जीवन 'अस्त-व्यस्त' हो गया है। रेल और सड़के बंद हो गई हैं। पर अभी भी यहां लोग इन 'भयंकर' आंधियों को ओम-गोम का एक हिस्सा मानते है।
इसलिए मरुभूमि में जेठ को कोई कोसता नहीं। उन दिनों पूरे ढंके शरीर केवल चेहरा ही खुला रहता है। तेज बहती दखिनी हवा रेत उठा-उठा कर चेहरे पर मारती है। लेकिन चरवाहें, ग्वाले जेठ के स्वागत में गीत गाते हैं और ठेठ कबीर की शैली में साई को जेठ भेजने के लिए धन्यवाद देते हैं: जेठ महीनो भलां आयो, दक्खन बाजे बा (हवा), कानों रे तो कांकड बाजे, वाड़े साई वाह।
ऐसे भी प्रसंग हैं, जहां बारह महीने आपस में मिल बैठ बातें कर रहे हैं और हरेक महीना अपने को प्रकृति का सबसे योग्य बेटा बता रहा है। पर इस संवाद में बाजी मार ले जाता है जेठ का महीना। वही जेठू यानी सबसे बड़ा भाई सिद्ध होता है। जेठ ठीक तपे नहीं रेत के अंधड़ उठें नहीं तो 'जमानो' अच्छा नहीं होगा। जमानो यानी वर्ष काल। वर्षा, खेतीबाड़ी, और घास-चारे के हिसाब से ठीक स्थिति का दौर। इसी दौर में पीथ