पृष्ठ:Rajasthan Ki Rajat Boondein (Hindi).pdf/२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

खारे पानी के सागर में अमृत जैसा मीठा पानी


रहते हैं। यहां परस्पर लगाव नहीं, इसलिए अलगाव भी नहीं होता। पानी गिरने पर कण थोड़े भारी हो जाते हैं पर अपनी जगह नहीं छोड़ते। इसलिए रुभूमि में धरती पर दरारें नहीं पड़तीं। भीतर समाया वर्षा का जल भीतर ही बना रहता है। एक तरफ थोड़े नीचे चल रही पट्टी इसकी रखवाली करती है तो दूसरी तरफ ऊपर रेत के असंख्य कणों का कड़ा पहरा बैठा रहता है।

इस हिस्से में बरसी बूंद-बूंद रेत में समा कर नमी में बदल जाती है। अब यहां कुंई बन जाए तो उसका पेट, उसकी खाली जगह चारों तरफ रेत में समाई नमी को फिर से बूंदों में बदलती है। बूंद-बूंद हैं रिसती है और कुंई में पानी जमा होने लगता है - खारे पानी के सागर में अमृत जैसा मीठा पानी।

इस अमृत को पाने के लिए मरुभूमि के समाज ने खूब मंथन किया। अपने अनुभवों को व्यवहार में उतारने का पूरा एक शास्त्र विकसित किया है। इस शास्त्र ने समाज के लिए उपलब्ध पानी को तीन रूपों में बांटा है।

पहला रूप है पालर पानी। यानी सीधे बरसात से मिलने वाला पानी। यह धरातल मीठी पानी पर बहता है और इसे नदी, तालाब आदि में रोका जाता है। यहां आदि शब्द में भी बहुत कुछ छिपा है। उसका पूरा विवरण आगे कहीं और मिलेगा।

पानी का दूसरा रूप पाताल पानी कहलाता है। यह वही भूजल है जो कुओं में से निकाला जाता है।

पालर पानी और पाताल पानी के बीच पानी का तीसरा रूप है, रेजाणी पानी। धरातल से नीचे उतरा लेकिन पाताल में न मिल पाया पानी रेजाणी है। वर्षा की मात्रा नापने में भी इंच या सेंटीमीटर नहीं बल्कि रेजा शब्द का उपयोग होता है। और रेजा का माप धरातल