वहां भी कुंइयां जरूर बनती हैं। ऐसी जगहों पर भीतर की चिनाई लकड़ी के लंबे लट्ठों से की जाती है। लट्ठे अरणी, बण (कैर) बावल या कुंबट के पेड़ों की डगालों से बनाए जाते हैं। इस काम के लिए सबसे उम्दा लकड़ी अरणी की ही है। पर उम्दा या मध्यम दर्जे की लकड़ी न मिल पाए तो आक तक से भी काम लिया जाता है।
लट्ठे नीचे से ऊपर की ओर एक दूसरे में फंसा कर सीधे खड़े किए जाते हैं। फिर इन्हें खींप की रस्सी से बांधा जाता है। कहीं-कहीं चग की रस्सी भी काम में लाते हैं। यह बंधाई भी कुंडली का आकार लेती है, इसलिए इसे सांपणी भी कहते हैं।
नीचे खुदाई और चिनाई का काम कर रहे चेलवांजी को मिट्टी की खूब परख रहती है। खड़िया पत्थर की पट्टी आते ही सारा काम रुक जाता है। इस क्षण नीचे धार लग जाती है। चेजारो ऊपर आ जाते हैं।
कुंई की सफलता यानी सजलता उत्सव का अवसर बन जाती है। यों तो पहले दिन से काम करने वालों का विशेष ध्यान रखना यहां की परंपरा रही है, पर काम पूरा होने पर तो विशेष भोज का आयोजन होता था। चेलवांजी को बिदाई के समय तरह-तरह की भेंट दी जाती थी। चेजारो के साथ गांव का यह संबंध उसी दिन नहीं टूट जाता था। आच प्रथा से उन्हें वर्ष-भर के तीज-त्योहारों में, विवाह जैसे मंगल अवसरों पर नेग, भेंट दी जाती और फसल आने पर खलियान में उनके नाम से अनाज का एक अलग ढेर भी लगता था। अब सिर्फ मजदूरी देकर भी काम करवाने का रिवाज आ गया है।
कई जगहों पर चेजारो के बदले सामान्य गृहस्थ भी इस विशिष्ट कला में कुशल बन जाते थे। जैसलमेर के अनेक गांवों में पालीवाल ब्राह्मणों और मेघवालों (अब अनुसूचित कहलाई जाति) के हाथों से सौ-दो सौ बरस पहले बनी पार या कुंइयां आज भी बिना थके पानी जुटा रही हैं।
कुंई का मुंह छोटा रखने के तीन बड़े कारण हैं। रेत में जमा नमी से पानी की बूंदें बहुत धीरे-धीरे रिसती हैं। दिन भर में एक कुंई मुश्किल से इतना ही पानी जमा कर पाती है कि उससे दो-तीन घड़े भर सकें। कुंई के तल पर पानी की मात्रा इतनी कम होती है कि यदि कुंई का व्यास बड़ा हो तो कम मात्रा का पानी ज्यादा फैल जाएगा और तब उसे
२९ राजस्थान की रजत बूंदें