पृष्ठ:Rajasthan Ki Rajat Boondein (Hindi).pdf/३५

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को सह सकने के लिए चखरी को दो सुंदर मीनारों पर टिकाया जाता है। कहीं-कहीं चारमीनार-कुंडी भी बनती है।

जगह की कमी हो तो कुंडी बहुत छोटी भी बनती है। तब उसका आगीर ऊंचा उठा लिया जाता है। संकरी जगह का अर्थ ही है कि आसपास की जगह समाज या परिवार के किसी और काम में लगी है। इसलिए एकत्र होने वाले पानी की शुद्धता के लिए आगोर ठीक किसी चबूतरे की तरह ऊंचा उठा रहता है।

बहुत बड़ी जीतों के कारण मरुभूमि में गांव और खेतों की दूरी और भी बढ़ जाती है। खेत पर दिन-भर काम करने के लिए भी पानी चाहिए. खेतों में भी थोड़ी-थोड़ी दूर पर छोटी-बड़ी कुंडियाँ बनाई जाती हैं।

कुंडी बनती ही ऐसे रेतीले इलाकों में है, जहाँ भूजल सौ-दो सौ हाथ से भी गहरा और प्रायः खारा मिलता है। बड़ी कुंडियाँ भी बीस-तीस हाथ गहरी बनती हैं और वह भी रेत में। भीतर बूंद-बूंद भी रिसने लगे तो भरी-भराई कुंडी खाली होने में देर नहीं लगे। इसलिए कुंडी के भीतरी भाग में सर्वोतम चिनाई की जाती है। आकार छोटा हो या बड़ा, चिनाई तो सौ टका ही होती है। चिनाई में पत्थर या पत्थर की पट्टियाँ भी लगाई जाती हैं। सांस यानी पत्थरों के बीच जोड़ते समय रह गई जगह में फिर से महीन चूने का लेप किया जाता है। मरुभूमि में तीस हाथ पानी भरा हो और तीस बूंद भी रिसन नहीं होगी-ऐसा वचन बड़े से बड़े वास्तुकार न दे पाएं, चेलवांजी तो देते है।

आगोर की सफाई औ भारी सावधानी के बाद भी कुछ रेत कुंडी में पानी के साथ-साथ चली जाती है। इसलिए कभी-कभी वर्ष के प्रारंभ में, चैत में कुंडी के भीतर उतर कर इसकी सफाई भी करनी पड़ती है। नीचे उतरने के लिए चिनाई के समय ही दीवार की गोलाई में एक-एक हाथ के अंतर पर जरा-सी बाहर निकली पत्थर की एक-एक छोटी-छोटी पट्टी बिठा दी जाती है।

नीचे कुंडी के तल पर जमा रेत आसानी से समेट कर निकाली जा सके, इसका भी पूरा ध्यान रखा जाता है। तल एक बड़े कढ़ाव जैसा ढालदार बनाया जाता है। इसे खमाड़ियो या कुंडालियो भी कहते हैं। लेकिन ऊपर आगोर में इतनी अधिक सावधानी रखी जाती है कि खमाड़ियो में से रेत निकालने का काम दस से बीस बरस में एकाध बार ही करना