पानी की किसी केंद्रीय व्यवस्था से जोड़ने का काम संभव ही नहीं है। इसलिए समाज ने यहां पानी का सारा काम बिलकुल विकेंद्रित रखा, उसकी जिम्मेदारी को आपस में बूंद-बूंद बांट लिया। यह काम एक नीरस तकनीक, यांत्रिक न रह कर एक संस्कार में बदल गया। ये कुंडियां कितनी सुंदर हो सकती हैं, इसका परिचय दे सकते हैं जैसलमेर के गांव।
हर गांव में कोई पंद्रह-बीस घर ही हैं। पानी यहां बहुत ही कम बरसता है। जैसलमेर की औसत वर्षा से भी कम का क्षेत्र है यह। यहां घर के आगे एक बड़ा-सा चबूतरा बना मिलता है। चबूतरे के ऊपर और नीचे दीवारों पर रामरज, पीली मिट्टी और गेरू से बनी सुंदर अल्पनाएं - मानी रंगीन गलीचा बिछा हो। इन पर घर का सारा काम होता है। अनाज सुखाया जाता है, बच्चे खेलते हैं, शाम को इन्हीं पर बड़ों की चौपाल बैठती है और यदि कोई अतिथि आ जाए तो रात को उसका डेरा भी इन्हीं चबूतरों पर जमता है।
पर ये सुंदर चबूतरे केवल चबूतरे नहीं हैं। ये कुंड हैं। घर की छोटी-सी छत, आंगन