पानी पर पड़ती है तो अंदाज लगता है कि पानी कितना नीला है।
यह नीला पानी किले के आसपास की पहाड़ियों पर बनी छोटी-छोटी नहरों से एक बड़ी नहर में आता है। सड़क जैसी चौड़ी यह नहर किले की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखते हुए किले की दीवार से नीचे उतर कर किले के भीतर पहुंचती है।
वर्षा से पहले नहरों की सफाई तो होती ही है पर फिर भी पहले झले का पानी इस टांके में नहीं आता। मुख्य बड़े टांके के साथ दो और टांके हैं, एक खुला और एक बंद। इन टांकों के पास खुलने वाली बड़ी नहर में दो है फाटक लगे हैं। शुरू में बड़े टांके की और पानी ले जाने वाली नहर का फाटक बंद रखा जाता है और खुले टांके का फाटक खोल दिया जाता है। पहले झले का पानी नहरों को धोते-साफ करते हुए, खुले टांके में चला जाता है, और फिर उससे सटे बन्द टांके में। इन दोनों टांकों के पानी का उपयोग पशुओं के काम आता रहा है। जयगढ़ किला था और कभी यहां पूरी फौज रहती थी। फौज में हाथी, घोड़े, ऊंट - सब कुछ था । फिर इतने बड़े किले की साफ-सफाई भी इन पहले दो टांकों के पानी से होती थी।
जब पनी का पूरा रस्ता, नहरों का पूरा जाल धूल जाए, तब पहला फाटक गिरता है और दूसरा फाटक खुलता है और मुख्य टांका तीन करोड़ लीटर झेलने के लिये तैयार हो जाता है। इतनी बड़ी क्षमता का यह टांका किले की जरूरत के साथ-साथ किले की सुरक्षा के लिए भी बनाया गया था। कभी किला शत्रुओं से घिर जाए तो लंबे समय तक भीतर पानी की कमी नहीं रहे। राजा गए, उनकी फौज गई। अब आए हैं जयपुर घूमने आने वाले पर्यटक। अच्छी खासी चढ़ाई चढ़ कर आने वाले हर पर्यटक की थकान इस टांके के शीतल और निर्मल जल से दूर होती है। टांकों और कुंडों में ठहरा पानी इतना निर्मल हो सकता है, इसका अंदाज देश-भर में बहती कहावत को भी नहीं रहा होगा।