तरफ झुक गया है। रखवाली करने वाली फौज की टुकड़ी के बुर्ज के पत्थर भी ढह गए हैं।
घाट की बारादरी पर कहीं-कहीं कब्जे हो गए हैं। पाठशालाओं में, जहां कभी परंपरागत ज्ञान का प्रकाश होता था, आज कचरे का ढेर लगा है। जैसलमेर पिछले कुछ वर्षों से विश्व के पर्यटन नक्शे पर आ गया है। ठंड के मौसम में - नवंबर से फरवरी तक यहां दुनिया भर के पर्यटक आते हैं और उनके लिए इतना सुंदर तालाब एक बड़ा आकर्षण है। इसीलिए दो वर्ष पहले सरकार का कुछ ध्यान इस तरफ गया था। आगोर से पानी की आवक में आई कमी को इंदिरा गांधी नहर से पानी लाकर दूर करने की कोशिश भी की गई। बाकायदा उद्घाटन हुआ इस योजना का। पर एक बार की भराई के बाद कहीं दूर से आ रही पाइप लाइन टूट-फूट गई। फिर उसे सुधारा नहीं जा सका। घड़सीसर अभी भी भरता है, वर्षा के पानी से।
६६८ बरस पुराना घड़सीसर मरा नहीं है। बनाने वालों ने उसे समय के थपेड़े सह पाने लायक मजबूती दी थी। रेत की आंधियों के बीच अपने तालाबों की उम्दा सार-संभाल की परंपरा डालने वालों को शायद इसका अंदाज नहीं था कि अभी उपेक्षा की आंधी चलेगी। लेकिन इस आंधी को भी घड़सीसर और उसे आज भी चाहने वाले लोग बहुत धीरज के साथ सह रहे हैं। तालाब पर पहरा देने वाली फौजी टुकड़ी आज भले ही नहीं हो, लोगों के मन का कुछ पहरा आज भी है। पहली किरन के साथ मंदिरों की घंटियां बजती हैं। दिन-भर लोग घाटों पर आते-जाते हैं। कुछ लोग यहां घंटों मौन बैठे-बैठे घड़सीसर को निहारते रहते हैं तो कुछ गीत गाते, रावणहत्था (एक तरह की सारंगी) बजाते हुए मिलते हैं। घड़सीसर से बहुत दूर रेत के टीले पार करते ऊंट वाले इसके ठंडे पानी के गुणों को गुनगुनाते मिल जाएंगे।
पनिहारिनें आज भी घाटों पर आती हैं। पानी ऊटगाड़ियों से भी जाता है और दिन में कई बार टैन्कर गाड़ियां भी यहां देखने मिल जाती हैं, जिनमें घड़सीसर से पानी भरने के लिए डीजल पंप तक लगा रहता है!
घड़सीसर आज भी पानी दे रहा है। और इसीलिए सूरज आज भी ऊगते और डूबते समय घड़सीसर में मन-भर सोना उंडेल जाता है।
घड़सीसर मानक बन चुका था। उसके बाद किसी और तालाब को बनाना बहुत कठिन रहा होगा। पर जैसलमेर में हर सौ-पचास बरस के अंतर पर तालाब बनते रहे - एक से एक, मानक घड़सीसर के साथ मोती की तरह गुंथे हुए।
घड़सीसर से कोई १७५ बरस बाद बना था जैतसर। यह था तो बंधनुमा ही, पर अपने बड़े बगीचे के कारण बाद में बस इसे 'बड़ा बाग' की तरह ही याद रखा गया।