पाव-भाग खोदते हैं। इस तरह चार हाथ खोदना हो तो उसे चार-चार हाथ के हिस्सों में खोदते हैं, चिनते हैं और नीचे पाताल पानी तक उतरते जाते हैं। बीच में कभी-कभी चट्टान आ जाए तो उसे बारूद लगा कर नहीं तोड़ा जाता। धमाके के झटके ऊपर की चिनाई को भी कमजोर बना सकते हैं। इसलिए चट्टान आने पर उसे धीरज के साथ हाथ से ही तोड़ा जाता है।
धरातल और पाताल को जोड़ना है पर सावधानी रखनी है कि धरातल पाताल में धंस न जाए–इसलिए इतनी तरह-तरह की चिनाई की जाती है। गीली चिनाई में भी साधारण गारे चूने से काम नहीं चलता। इसमें ईंट की राख, बेल का फल, गुड़, सन के बारीक कुतरे गए टुकड़े मिलाए जाते हैं। कभी-कभी घरट, यानी बैल से चलने वाली पत्थर की चक्की से पीसा। गया मोटा चूना फिर हाथ की चक्की से भी पीसा जाता है ताकि इतने गहरे और वजनी काम को थामे रहने की ताकत उसमें आ जाए।
भीतर का सारा काम थमते ही ऊपर धरातल पर काम शुरू होता है। यहां कुएं के ऊपर बस एक जगत बना कर नहीं रुक जाते। मरुभूमि में कुओं की जगत पर, उसके ऊपर और उसके आसपास जगत-भर का काम मिलता है। इसके कई कारण हैं। एक तो पानी बहुत गहराई से ऊपर उठाना है। छोटी बाल्टी से तीन सौ हाथ का पानी निकाला तो इतने परिश्रम के बाद क्या मिला? इसलिए बड़े डोल या चड़स से पानी खींचा जाता है। इससे एक बार में आठ-दस बाल्टी पानी बाहर आता है। इतने वजन का डोल खींचने के लिए जो घिरौं, भूण लगेगा वह भी मजबूत चाहिए। उसे जिन खंबों के सहारे खड़ा करेंगे, उन्हें भी इतना वजन सहने लायक होना चाहिए। फिर इतनी मात्रा में पानी ऊपर आएगा तो उसे ठीक से खाली करने का कुंड, उस कुंड में से बह कर आए पानी का एक और बड़े कुंड में संग्रह ताकि वहां से उसे आसानी से लिया जा सके-इस सारी उठापटक