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राजस्थान की रजत बूंदें


लाने में ज़्यादा श्रम न लगाना पड़े, इसलिए ऐसे कुओं के साथ सारण बनती है। सारण है एक ढलवां रास्ता, जिस पर बैल चड़स को खींचते समय चलते हैं। सारण की ढाल के कारण ही उनका कठिन काम कुछ आसान बनता है। सारण का एक अर्थ काम निभाने या बनाने वाला भी है और सारण सचमुच गहरे कुएं से पानी खींचने का काम निभाती है। जो बैल जोड़ी सारण के एक छोर से चलेगी, वह इस लंबी सारण के दूसरे ढलवा छोर पर जाकर बहुत धीरे-धीरे ऊपर चढ़ेगी, दुबारा पानी खींचने में इस तरह काफी समय लगेगा। इसलिए सारण की कुल लंबाई कुएं की कुल गहराई से आधी रखी जाती है और बैलों की एक की खींचा जाता है।

तीन सौ हाथ गहरे कुएं में चड़स के भरते ही पहली जोड़ी ढलवां सारण पर डेढ़ सौ हाथ उतर कर चड़स को कुएं में आधी दूरी तक खींच लाती है। तभी उस रस्सी को बड़ी चतुराई से क्षण भर में दूसरी जोड़ी से जोड़ दिया जाता है और उधर पहली जोड़ी को खोल कर रस्सी से अलग हटा कर चढ़ाई पर हांक कर ऊपर लाया जाता है। इधर दूसरी जोड़ी बचे डेढ़ सौ हाथ की दूरी तक चड़स खींच लाती है। चड़स भलभला कर खाली होती है-पाताल का पानी धरातल पर बहने लगता है।

एक बार की यह पूरी क्रिया बारी या वारी कहलाती है। इस काम को करने वाले बारियी कहलाते हैं। इतनी वजनी चड़स को कुएं के ऊपर खाली करने के काम में बल और बुद्धि दोनों चाहिए। जब भरी चड़स ऊपर आकर थमती है तो उसे हाथ से नहीं पकड़ सकते-ऐसा करने में बारियो भरी वजनी चड़स के साथ कुएं में भीतर खींच लिया जा सकता है। इसलिए पहले चड़स को धक्का देकर उलटी तरफ धकेला जाता है। वजन के कारण वह दुगने वेग से फिर वापस लौटती है, और जगत तक आ जाती है तब झपट कर उसे खाली कर लिया जाता है।

बारियो के इस कठिन काम का समाज में एक समय बहुत सम्मान था। गांव में बरात आती थी तो पंगत में बारियों को सबसे पहले आदर के साथ बिठाकर भोजन कराया जाता था। बारियो का एक संबोधन चड़सियो यानी चड़स खाली करने वाला भी रहा है।