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राजस्थान की रजत बूंदें

बारियो का जोड़ीदार है खांभी, खांभीड़ो। खांभी सारण में बैलों को हांकता है। आधी दूरी पार करने पर खांभीडो चड़स की रस्सी को एक विशेष कील के सहारे पहली जोड़ी से खोल कर दूसरी जोड़ी से बांधता है। इसलिए खांभीड़ो का एक नाम कीलियो भी है।

बैलजोड़ी और चड़स को जोड़ने वाली लंबी और मजबूत रस्सी लाव कहलाती है। यह रस्सी घास, या रेशों से नहीं बल्कि चमड़े से बनती है। घास या रेशों से बनी रस्सी इतनी मजबूत नहीं हो सकती कि दो मन चड़स दिन भर ढोती रहे। फिर बार-बार पानी में डूबते-उतरते रहने के कारण वह जल्दी सड़ भी सकती है। इसलिए चड़स की रस्सी चमड़े की लंबी-लंबी पट्टियों को बट कर बनाई जाती है। उपयोग के बाद इसे किसी ऐसी जगह टांग कर रखा जाता है, जहां चूहे न कुतर सकें। ठीक संभाल कर रखी गई लाव पन्द्रह-बीस बरस तक पानी खींचती रहती है।

लाव का एक नाम बरत भी है। बरत में भैंस का चमड़ा काम आता है। मरुभूमि में गाय-बैल और ऊंट ज्यादा हैं। भैंस का तो यह क्षेत्र था नहीं। पर इस काम के लिए पंजाब से भैंस का चमड़ा यहां आता था और जोधपुर, फलोदी, बीकानेर आदि में उसके लिए अलग बाजार हुआ करता था। कहीं-कहीं चड़स के बदले कोस काम आता था। उसे बैल या ऊंट की खाल से बनाया जाता था।

कम गहरे लेकिन खूब पानी देने वाले कुएं में चड़स, या कोस के बदले सूंडिया से पानी निकाला जाता है। सूंडिया भी है तो एक तरह की चड़स ही पर यह कुएं से ऊपर आते ही अपने आप खाली हो जाती है। इंडिया का आकार ऊपर से तो चड़स जैसा ही रहता है पर नीचे इसमें हाथी की सूंड जैसी एक नाली बनी रहती है। इसमें दो रस्सियां लगती हैं। ऊपर मुख्य वजन खींचने वाली चमड़े की रस्सी यानी बरत रहती है और फिर एक हल्की रस्सी सूंड के मुंह पर बांधी जाती है। कुएं के भीतर जाते समय सूंड का मुंह मुड़ कर बंद हो जाता है। पानी भर जाने के बाद ऊपर आते समय भी यह बंद रहता है पर जगत पर आते ही यह खुल जाता है और सूंडिया का पानी क्षण-भर में खाली हो जाता है।

सूंडिया वाले कुएं पर एक नहीं, दो चरखी लगती है। ऊपर की चरखी तो भूण है फिर भूण से चार हाथ नीचे सूंडिया की सूंड को खोलने वाली एक और घिरी लगती है। यह गिड़गिड़ी कहलाती है। भूण को तो सारा वजन ढोना है इसलिए उसका आकार पहिए