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राजस्थान की रजत बूंदें

सूंडिया चड़स

जैसा रखा जाता है पर गिड़गिड़ी को हल्का काम करना है इसलिए वह बेलन जैसे आकार की बनती है।

नाम और काम की सूची समाप्त नहीं होती है। सूंडिया का मुख्य गोल मुंह जिस लोहे के तार या बबूल की लकड़ी के घेरे में कसा जाता है वह है पंजर। पंजर और चमड़े को बांधते हैं कसण । मुंह को खुला रखने लकड़ी का जो चौखट लगता है उसे कहते हैं कलतरू। कलतरू को मुख्य रस्सी यानी बरत से जोड़ने के लिए एक और रस्सी बंधती है, उसका नाम है तोकड़। लाव के एक छोर पर यह बंधी है, तो दूसरे छोर पर खड़ी है बैलजोड़ी। जोड़ी के कंधों पर चड़स खींचने जुआनुमा जो बंधा है, उसका नाम है पिंजरो। इसी पिंजरो में दोनों बैलों की गर्दन अटकाई जाती है। पिंजरो में चार तरह की लकड़ियां ठुकती हैं और चारों के नाम अलग-अलग हैं। संडिया ऊपर लंबाई में लगने वाली वजनी लकडी कोकरा है, नीचे की हल्की लकडी फट कहलाती चड़स है। चौड़ाई में लगने वाली पहली दो पट्टियों का नाम गाटा है तो भीतर की दो का नाम धूसर।

ये सारे नाम और काम कुछ जगहों पर, कुछ कुओं पर बिजली और डीजल के पंपों के कारण कुछ धुंधले पड़ने लगे हैं। इन नए पंपों में चड़स, कोस की तेवड़ यानी मितव्ययिता नहीं है। बहुत से साठी, चौतीनो कुएं आज बैलों के बदले 'घोड़ों' से यानी हार्स पावर से पहचाने जाने वाले पंपों से पानी उलीच रहे हैं। पिछले दौर में कई नई-पुरानी बस्तियों में नए नल लग गए हैं। पर उनमें पानी ऐसे ही पुराने साठी या चौतीनो कुओं पर लगे पंप से फेंका जाता है। नए से दिख रहे नलों में भी राजस्थान की जल परंपरा की धारा बहती है। कहीं यह धारा टूटी भी है। इसका सबसे दुखद उदाहरण जोधपुर जिले के ७४ फलोदी शहर में सेठ सांगीदासजी के साठी कुएं का है। कुआं क्या, वह तो वास्तुकला की गहराई-ऊंचाई नाप ले।