में सेठ सांगीदासजी का कुआं जवाब दे गया।
पानी इसमें आज भी है पर सफाई के अभाव में सोते पुर गए हैं। सफाई के लिए इतने नीचे कौन उतरे? जिस शहर में इतना गहरा कुआं खोदने वाले कीणियां मिलते थे, उसे पत्थर से बांधने वाले गजधर मिलते थे, आज वहां नगरपालिका उसे साफ करने वालों को ढूंढ नहीं पा रही है।
लेकिन बीकानेर शहर में १८वीं सदी में बना भव्य चौतीना कुआं आज भी न सिर्फ मीठा पानी दे रहा है, इसी 'कुएं' में नगरपालिका का दफ्तर चल रहा है, आसपास के मोहल्लों के बिजली-पानी के बिल जमा होते हैं और जल विभाग के कर्मचारियों की यूनियन का भी काम चलता है। पहले कभी चार सारणों पर आठ बैलजोड़ियां पानी खींचती थीं। अब यहां भी बिजली के बड़े-बड़े पंप लगे हैं, दिन-रात पानी उलीचते हैं, पर चौतीना की थाह नहीं ले पाते। हर समय बीस-पच्चीस साइकिलें, स्कूटर और मोटर गाड़ियां कुआं, कुएं पर खड़ी मिलती हैं। इन सबको अपने विशाल हृदय में समेटता यह कुआं कहीं बीकानेर से भी, दूर से या बिलकुल पास से भी कुआं नहीं, किसी छोटे सुंदर रेलवे स्टेशन, बस स्टेंड या छोटे महल की तरह दिखता है।
और वहां एक नहीं, अनेक कुएं हैं, सिर्फ वहीं नहीं, हर कहीं ऐसे कुएं हैं, कुंई, कुंड और टांके हैं। तालाब हैं, बावड़ी, पगबाव हैं, नाडियां हैं, खडीन, देईबंध जगह हैं, भे हैं, जिनमें रजत बूंदें सहेज कर रखी जाती हैं। माटी, जल और ताप की तपस्या करने वाला यह देस बहते और ठहरे पानी को निर्मल बना कर रखता है, पालर पानी, रेजाणी पानी और पाताल पानी की एक-एक बिंदु को सिंधु समान मानता है और इंद्र की एक घड़ी को अपने लिए बारह मास में बदलता है।
कभी क्षितिज तक लहराने वाला अखंड समुद्र हाकड़ो यहां आज भी खंड-खंड होकर उतरता है।