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राजस्थान की रजत बूंदें


उतरवा कर हमें भीतर ले जाया गया। ढक्कन खोल कर देखा तो पता चला कि भीतर बहुत बड़े कुंड में पानी भरा है।

राजस्थान में जल संग्रह की विशाल परंपरा का यह पहला दर्शन था। बाद की यात्राओं में जहां भी गए, वहां इस परंपरा को और अधिक समझने का सौभाग्य मिला। तब तक राजस्थान के बारे में यही पढ़ा-सुना था कि पानी का वहां घोर अकाल है, समाज बहुत कष्ट में जीता है। लेकिन जल संग्रह के ऐसे कुछ कामों को देखकर राजस्थान की एक भिन्न छवि उभरने लगी थी। जल संग्रह के इन अद्भुत तरीकों के कुछ चित्र भी खींचे थे।

हर समय की गरट

तब तक जो कुछ भी छिटपुट जानकारी एकत्र हुई थी, उसे बहुत संकोच के साथ एकाध बार राजस्थान की कुछ सामाजिक संस्थाओं के बीच भी रखा। तब लगा कि उस क्षेत्र में काम कर रही सामाजिक संस्थाएं अपने ही समाज के इस कौशल से उतनी ही कटी हुई हैं जितने कि राजस्थान के बाहर के हम लोग। संकोच कुछ कम हुआ और फिर जब भी, जहां भी अवसर मिला, इस अधूरी-सी जानकारी को यहां-वहां पहुंचाना शुरू किया।

इस काम का विस्तार और गहराई–दोनों को समझ पाना हमारे बूते से बाहर की बात थी। राजस्थान भर में जगह-जगह उपस्थित यह काम नई पढ़ाई-लिखाई में, पुस्तकों, पुस्तकालयों में लगभग अनुपस्थित ही रहा है। राजस्थान की आई-गई सरकारों ने, और तो और नई सामाजिक संस्थाओं तक ने भी अपने ही समाज के इस विस्तृत काम को जैसे विस्मृत ही कर दिया था। बस बची है इस काम की पहचान लोगों की स्मृति में। वे ही इस स्मृति को ठीक श्रुति की तरह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपते आ रहे हैं। इस स्मृति, श्रुति और कृति को हम बहुत ही धीरे-धीरे बूंद-बूंद ही समझ सके। कुछ अंग-प्रत्यंग तो दिखने लगे थे, मोटी-मोटी बातें समझ में आने लगी थीं, लेकिन इस काम की आत्मा का दर्शन तो हमें आठ-नौ बरस बाद जैसलमेर की यात्राओं से, वहां श्री भगवानदास माहेश्वरी, श्री दीनदयाल ओझा और श्री जेठूसिंह भाटी के सत्संग से हो सका।

पानी के प्रसंग में राजस्थान के समाज ने वर्षों की साधना से. अपने ही साधनों से जो गहराई-ऊंचाई छुई है, उसकी ठीक-ठीक जानकारी खूब वर्षा के बाद भी प्यासे रह जा रहे देश के कई भागों तक तो पहुंचनी ही चाहिए। साथ ही यह भी लगा कि दुनिया के