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राजस्थान की रजत बूंदें

हैंडपंप से आगे जाती कुंडी

तंजानिया के मरुप्रदेश में भी ऐसी ही अनेक विदेशी संस्थाओं ने 'सस्ते और साफ' पानी के प्रबंध की योजनाएं बनाई हैं। गांवों का बाकायदा सर्वे हुआ है। ऐसी जानकारी गांव से जिले, जिले से केंद्र और केंद्र से फिर यूरोप गई है। हवाई चित्र खिंचे हैं, नाजुक विदेशी मशीनों से भूजल की स्थिति आंकी गई है-तब कहीं जाकर २००० कुएं बने हैं। इन सब कुओं पर पानी की शुद्धता बनाए रखने के लिए सीधे पानी खींचने की मनाही है। इन कुओं पर हैंडपंप लगाए जा रहे हैं। हैंडपंपों में बच्चे कंकड़-पत्थर डाल देते हैं। अब यहां भी हैंडपंपों के 'बेहतर' उपयोग के लिए ग्रामीण गोष्ठियां आयोजित हो रही हैं। टूट-फूट की शिकायतों से त्वरित गति से निपटने के लिए गांव और जिले के बीच सूचनाओं के आदान-प्रदान का नया ढांचा खड़ा हो रहा है।

केन्या के रेतीले भागों में घरों की छतों पर से वर्षा के पानी को एकत्र करने के प्रयोग चल रहे हैं। पानी से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठियों में केन्या सरकार के अधिकारी इन कामों को जनता की भागीदारी के उत्तम उदाहरण की तरह प्रस्तुत करते हैं।

दुनिया के मरुप्रदेशों-बोत्सवाना, इथोपिया, तंजानिया, मलावी, केन्या, स्वाजीलैंड और सहेल के देशों को क्या अपने लिए पानी इसी तरह जुटाना पड़ेगा? यदि पानी का सारा काम इसी तरह बाहर से आया तो क्या वह मरुभूमि के इन भीतरी गांवों में लंबे समय तक निभ पाएगा? समाज की प्रतिभा, कौशल, अपना तन, मन, धन-सब कुछ अनुपस्थित रहा तो पानी कब तक उपस्थित बना रह पाएगा?

मरुप्रदेशों के इस चित्र की तुलना करें राजस्थान से, जहां समाज ने सन् १९७५ से १९८१ या १९९५ के बीच में नहीं, कुछ सैकड़ों वर्षों से पानी की रजत बूंदों को जगहजगह समेट कर, सहेज कर रखने की एक परंपरा बनाई है। और इस परंपरा ने कुछ लाख कुंडियां, कुछ लाख टांके, कुछ हजार कुंईयां और कुछ हजार छोटे-बड़े तालाब बनाए हैं-यह सारा काम समाज ने अपने तन, मन, धन से किया है। इसके लिए उसने किसी के आगे कभी हाथ नहीं पसारा।

ऐसे विवेकवान, स्वावलंबी समाज को शत-शत प्रणाम।