मरुभूमि में सूरज गोवा, चेरापूंजी की वर्षा की तरह बरसता है। पानी कम और गरमी ज्यादा – ये दो बातें जहां मिल जाएं वहां जीवन दूभर हो जाता है, ऐसा माना जाता है। दुनिया के बाकी मरुस्थलों में भी पानी लगभग इतना ही गिरता है, गरमी लगभग इतनी ही पड़ती है । इसलिए वहां बसावट बहुत कम ही रही है । लेकिन राजस्थान के मरुप्रदेश में दुनिया के अन्य ऐसे प्रदेशों की तुलना में न सिर्फ बसावट ज्यादा है, उस बसावट में जीवन की सुगंध भी है । यह इलाका दूसरे देशों के मरुस्थलों की तुलना में सबसे जीवंत माना गया है।
इसका रहस्य यहां के समाज में है। राजस्थान के समाज ने प्रकृति से मिलने वाले इतने कम पानी का रोना नहीं रोया। उसने इसे एक चुनौती की तरह लिया और अपने को ऊपर से नीचे तक कुछ इस ढंग से खड़ा किया कि पानी का स्वभाव समाज के स्वभाव में बहुत सरल, तरल ढंग से बहने लगा।
इस 'सवाई' स्वभाव से परिचित हुए बिना यह कभी समझ में नहीं आएगा कि यहां पिछले एक हजार साल के दौर में जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर और फिर जयपुर जैसे बड़े शहर भी बहुत सलीके के साथ कैसे बस सके थे। इन शहरों की आबादी भी कोई कम नहीं थी। इतने कम पानी के इलाके में होने के बाद भी इन शहरों का जीवन देश के अन्य शहरों के मुकाबले कोई कम सुविधाजनक नहीं था। इनमें से हरेक शहर अलग-अलग दौर में लंबे समय तक सत्ता, व्यापार और कला का प्रमख केंद्र भी बना रहा था। जब बंबई, कलकत्ता, मद्रास जैसे आज के बड़े शहरों की 'छठी' भी नहीं हुई थी तब जैसलमेर आज के ईरान, अफगानिस्तान से लेकर रूस तक के कई भागों से होने वाले व्यापार का एक बड़ा केन्द्र बन चुका था।
जीवन की, कला की, व्यापार की, संस्कृति की ऊंचाइयों को राजस्थान के समाज ने अपने जीवन-दर्शन की एक विशिष्ट गहराई के कारण ही छुआ था। इस जीवन-दर्शन में पानी का काम एक बड़ा महत्वपूर्ण स्थान रखता था। सचमुच धेले भर के विकास के इस नए दौर ने पानी की इस भव्य परंपरा का कुछ क्षय जरूर किया है, पर वह उसे आज भी पूरी तरह तोड़ नहीं सका है। यह सौभाग्य ही माना जाना चाहिए।
पानी के काम में यहां भाग्य भी है और कर्तव्य भी। वह भाग्य ही तो था राजस्थान की कि महाभारत युद्ध समाप्त हो जाने के बाद श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र से अर्जुन को साथ रजत बूंदें लेकर वापस द्वारिका इसी रास्ते से लौटे थे। उनका रथ मरुदेश पार कर रहा था।