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तालाब पूरा लबालब भर जाए।  

डेडरियो के तीसरी पंक्ति गाते समय बच्चे इस पंक्ति में आए शब्द तलाई के बदले अपने मोहल्ले या गांव के तालाब का नाम लेते हैं। दूसरी पंक्ति पालर पानी भरूं-भरूं के बदले कहीं-कहीं मेंढक ठाला ठीकर भरूं-भरूं भी कहता है।

डेडरियो का यह प्रसंग हमें जैसलमेर के श्री जेठूसिंह भाटी से मिला और फिर उसमें कुछ और बारीकियां जैसलमेर के ही श्री दीनदयाल ओझा ने जोड़ी हैं : बदल उमड़ आने पर बच्चे तो डेडरियो गाते निकलते हैं और बड़े लोग गूगरिया मिट्टी के बर्तन में पकाते हैं। फिर इसे चारों दिशाओं में उछाल कर हवा, पानी को अर्घ्य अर्पित करते हैं। इस तरह वे वर्षा का 'अरूठ ' मिटाते हैं, यानि वर्ष यदि किसी कारण से रूठ गई है तो इस भेंट से उसे प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं। यह अनुष्ठान नंगे सर किया जाता है। इस दौरान पगड़ी नहीं पहनी जाती। इस तरह लोग जल देवता को यह जताना चाहते हैं कि वे दुखी और संतप्त हैं। शोक में डूबे अपने भक्तों को प्रसन्न करने, अपनी अरूठ दूर कर वर्षा को अवतरित होना पड़ता है।

कहीं-कहीं आखा तीज, अक्षय तृतीया पर मिट्टी के चार कुल्हड़ भूमि पर रखे जाते हैं। ये

चार महीनों–जेठ, आषाढ़, सावन और भादों के प्रतीक माने जाती हैं। इनमे पानी भरा जाता है। फिर उत्सुक निगाहें देखती हैं कि कौन-सा कुल्हड़ पहले गल जाता है। जेठ का कुल्हड़ गल जाए तो वर्षा स्थिर मानी जाएगी, आषाढ़ का गले तो खंडित रहेगी और सावन या भादों में से कोई पहले फूट जाए तो माना जाता है कि खूब पानी बरसेगा।

नए लोगों के लिए चार महीनों के कुल्हड़ों का यह प्रसंग टोटका होगा पर यहां पुराने लोग मौसम विभाग की भविष्यवाणी को भी टोटके से ज्यादा नहीं मानते।

वर्षा काल में बिजली के चमकने और गरजने में ध्वनि और प्रकाश की गति का ठीक स्वाभाव समाज परखता रहा है : तीस कोसरी गाज, सौ कोसरी खैन यानि बिजली कड़कने की आवाज तीस कोस तक जाती है पर उसकी चमकने का प्रकाश तो सौ कोस तक फैल जाता है। ध्वनि और प्रकाश का यह बारीक अंतर हमें श्री जेठूसिंह से मिला है।

राज्य के विस्तार, क्षेत्रफल आदि के आंकड़ों में श्री इरफन मेहर की पुस्तक राजस्थान के भूगोल से सहायता ली गई है और फिर उसमें इस बीच बने नए जिले और जोड़े गए हैं। राजस्थान के भूगोल का आधुनिक वर्गीकरण और मानसून की हवा की विस्तृत जानकारी भी इसी पुस्तक से ली गई है।

खारी जमीन का पहला परिचय हमें सांभर क्षेत्र की यात्रा से मिला। यहाँ तक हम तिलोनिया, अजमेर स्थित सोशल वर्क एंड रिसर्च सेंटर के साथी श्री लक्ष्मीनारायण, श्री लक्ष्मणसिंह और श्रीमती रतनदेवी के सौजन्य से पहुंच सके थे। बीकानेर का लूणकरणसर क्षेत्र तो नाम से ही लवणयुक्त है। इस क्षेत्र को समझने में हमें वहां काम कर रहे उरमूल ट्रस्ट से मदद मिली।

इस अध्याय में ताप से संबंधित अंश पीथ, जलकूंडो, माछलो और भडली पुराण के प्रारंभिक

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राजस्थान की रजत बूंदें