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इस जमाने में जमानो शब्द का ठीक भाव हम श्री ओम थानवी, संपादक जनसत्ता, १८६ बी, इंडस्ट्रियल एरिया, चंडीगढ़ से समझ सके। श्री थानवी ने सन् ८७ में सेंटर फार साइंस एंड एनवायर्नमेंट, नई दिल्ली की ओर से मिली एक शोधवृत्ति पर संभवतः पहली बार राजस्थान के जल-संग्रह पर एक विस्तृत आलेख लिखा था और इस परंपरा की भव्य झलक देने वाले उम्दा छाया चित्र खींचे थे। फिर जमानों पर विस्तृत जानकारी हमें श्री जेठूसिंह से मिली। उन्हीं ने जेठ का महत्व, जेठ की प्रशंसा में ग्वालों के गीत और महीनों की आपसी बातचीत में जेठ की श्रेष्ठता से जुड़ी जानकारियां दीं।

पानी बरसने की क्रिया तूठणो से लेकर उबरेलो, यानी वर्षा के सिमटने की पूरी प्रक्रिया को हम राजस्थानी-हिन्दी शब्द कोश की सहायता से समझ पाए हैं।

राजस्थान की रजत बूंदे

सचमुच 'नेति नेति' जैसी कुंई को कुछ हद तक ही समझ पाने में हमें सात-आठ बरस लग गए–इसे स्वीकार करने में हमें जरा भी संकोच नहीं हो रहा है। पहली बार कुंई देखी थी सन् १९८८ में चुरू जिले के तारानगर क्षेत्र में। लेकिन यह कैसे काम करती है, खारे पानी के बीच भी खड़ी रह कर यह कैसे मीठा पानी देती रहती है–इसकी प्रारंभिक जानकारी हमें बीकानेर प्रौढ़ शिक्षण समिति की एक गोष्ठी में भाग लेने आए ग्रामीण प्रतिनिधियों से हुई बातचीत से मिली थी। बाड़मेर में बनने वाली पार का परिचय वहां के नेहरू युवा केंद्र के समन्वयक श्री भुवनेश जैन से मिला।

कभी स्वयं गजाधर रहे श्री किशन वर्मा ने

चेजारो और चेलबांजी के काम की बारीकियां और कठिनाइयां समझाईं। कुंई खोदते समय खींप की रस्सी से उसे बांधते चलने, और भीतर हवा की कमी को दूर करने ऊपर से एक-एक मुट्टी रेत जोर से फेंकने का आश्चर्यजनक तरीका भी उन्होंने बताया। श्री वर्मा का पता है : १, गोल्डन पार्क, रामपुरा, दिल्ली ३५।

कुंई और रेजाणी पानी का शाश्वत संबंध हमें जैसलमेर के श्री जेठूसिंह भाटी से हुए पत्र व्यवहार से और फिर जैसलमेर में उनके साथ हुई बातचीत से समझ में आया। रेजाणी पानी ठीक से टिकता है बिट्टू रो बल्लियो के कारण। बिट्टू मुल्तानी मिट्टी या मेट, छोटे कंकड़, यानी मुरडियो से मिलकर बनी पट्टी है। इसमें पानी नमी की तरह देर तक, कहीं-कहीं एक-दो वर्ष तक बना रहता है। खड़िया पट्टी भी काम तो यही करती है पर इसमें पानी उतनी देर तक नहीं टिक पाता। बिट्टू से ठीक उलटी है धीये रो बल्लियों। इससे पानी रुकता नहीं और इसलिए ऐसे क्षेत्रों से रेजाणी पानी नहीं लिया जा सकता और इसलिए इनमें कुंइयां भी नहीं बन सकती।

सांपणी और लट्ठों से पार की बंधाई की जानकारी भी उन्हीं से मिली है। जैसलमेर से २५ किलोमीटर दूर खड़ेरों की ढाणी गांव में पालीवालों की छह बीसी (एक सौ बीस) पारों को हम श्री जेठूसिंह और उसी गांव के श्री चैनारामजी के साथ की गई यात्रा में समझ पाए। आज इनमें से ज्यादातर पार रेत में दब गई हैं। ऐसा ही एक और गांव है छंतारगढ़। इसमे पालीवालों के समय की ३०० से ज्यादा कुंइयों के अवशेष मिलते हैं। कई पारों में आज भी पानी आता है।

खंड़ेरों की ढाणी जेसे कई गांवों को आज एक नए बने ट्यूबवैल से पानी मिल रहा है। पानी 60 किलोमीटर दूर से पाइप लाइन के माध्यम से आता

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राजस्थान की रजत बूंदें