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भी नहीं लगा सकते। किसी केंद्रीय ढांचे से इस काम को पूरा करना एक तो संभव नहीं और यदि थोड़ा-बहुत हो भी जाए तो उसकी कीमत कुछ करोड़ों रुपए की होगी। राजस्थान सरकार के जन स्वास्थ्य अभियांत्रिक विभाग की ओर से समय-समय पर यहां-वहां कुछ पेयजल योजनाओं को बनाने के लिए निविदा सूचनाएं अखबारों में निकलती रहती हैं। फरवरी ९४ में दिल्ली के जनसत्ता दैनिक में प्रकाशित एक ऐसी ही निविदा सूचना में बाड़मेर जिले की शिव, पचपदरा, चौहटन, बाड़मेर और शिवाना तहसील के कुल दो सौ पचास गांवों में जलप्रदाय योजना बनाने की अनुमानित लागत ४० करोड़ बताई गई है। इसी निविदा में बीकानेर जिले की बारह तहसीलों के छह सौ गांवों में होने वाले काम की लागत ९६ करोड़ रुपए आने वाली है।

इसी के साथ फरवरी ९४ में राजस्थान के अखबारों में छपी निविदा सूचना भी ध्यान देने लायक है। इसमें जोधपुर जिले के फलोदी क्षेत्र में इसी विभाग की ओर से २५ हजार लीटर से ४५ हजार लीटर तक की क्षमता के 'भूतल जलाशय' यानी कहीं और से लाए गए पानी को जमा करने वाले टांकों के निर्माण की योजना है। इन सबकी अनुमानित लागत ४३ हजार रुपए से ८६ हजार रुपए बैठ रही है। इनमें एक लीटर पानी जमा रखने का खर्च लगभग दो रुपए आएगा। पर पानी कहीं और से लाना होगा। उसका खर्च अलग। यह काम फलोदी के केवल तेरह गांवों में होगा। कुल खर्च है लगभग नौ लाख रुपए।

अब कल्पना कीजिए राजस्थान के समाज के उस 'विभाग' की, जो एक साथ बिना विज्ञापन, निविदा सूचना और ठेकेदारी के अपने ही बलबूते पर कोई ३० हजार गांवों में निर्मल पानी जुटा सकता था।

बिंदु में सिंधु समान

साईं इतना दीजिए के बदले साईं 'जितना' दीजिए वामे कुटुम समा कर दिखाने वाले इस समाज की बहुत-सी जानकारी हमें पिछली पुस्तक 'आज भी खरे हैं तालाब' को तैयार करते समय मिली थी। इस अध्याय का अधिकांश भाग उस पुस्तक के 'मृगतृष्णा झुठलाते तालाब' पर आधारित है। तालाब कैसे बनते हैं, कौन लोग इन्हें बनाते हैं, तालाबों के आकार-प्रकार और उनके तरह-तरह के नाम, वे परंपराएं जो तालाब को सहेज कर वर्षों तक रखना जानती थीं–आदि अनेक बातें गांधी शांति प्रतिष्ठान से छपी उस पुस्तक में आ चुकी हैं। इस विषय में रुचि रखने वाले पाठकों को उसे भी पलट कर देख लेना चाहिए।

तालाब के बड़े कुटुंब की सबसे छोटी और प्यारी सदस्या नाडी की प्रारंभिक जानकारी हमें मरुभूमि विज्ञान विद्यालय के निदेशक श्री सुरेन्द्रमल मोहनोत से मिली थी। उन्होंने जोधपुर शहर में जल संग्रह की उन्नत परंपरा पर काम किया है। उनके इस अध्ययन से पता चलता है कि शहरों में भी नाडियां बनती रही हैं। जोधपुर में अभी भी कुछ नाडियां बाकी हैं। इनमें प्रमुख हैं : जोधा की नाडी, सन् १५२० में बनी गोल नाडी, गणेश नाडी, श्यामगढ़ नाडी, नरसिंह नाडी और भूतनाथ नाडी।

सांभर झील के आगौर में चारों तरफ खारी जमीन के बीच मीठे पानी की तलाई हम प्रयत्न नामक संस्था के श्री लक्ष्मीनारायण और सोशल वर्क एंड रिसर्च सेंटर की श्रीमती रतनदेवी तथा श्री लक्ष्मणसिंह के साथ की गई यात्रा में देख समझ सके। इनके पते हैं : प्रयत्न, ग्राम शोलावता, पो. श्रीरामपुरा, बरास्ता नरैना, जयपुर तथा सोशल वर्क एंड रिसर्च सेंटर, तिलोनिया, बरास्ता मदनगंज, अजमेर।

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राजस्थान की रजत बूंदें