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पृष्ठ:Ramanama.pdf/१३

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नीतिरक्षाका अुपाय


नीरोगी होता है। अर्थात् ज्यो-ज्यो आत्मा नीरोग—निर्विकार होती जाती है, त्यो त्यो शरीर भी नीरोगी होता जाता है। लेकिन यहा नीरोगी शरीरके मानी बलवान शरीर नही है। बलवान आत्मा क्षीण शरीरमे ही वास करती है। ज्यो-ज्यो आत्मबल बढता है, त्यो त्यो शरीर की क्षीणता बटती है। पूर्ण नीरोगी शरीर बिलकुल क्षीण भी हो सकता है। बलवान शरीरमे बहुत अशमे रोग रहते है। रोग न हो, तो भी वह शरीर सक्रामक रोगोका शिकार तुरन्त हो जाता है। परन्तु पूर्ण नीरोग शरीर पर अुनका असर नही हो सकता। शुद्ध खूनमे जैसे जन्तुओ को दूर रखनेका गुण होता है।

ब्रह्मचर्यका लौकिक अथवा प्रचलित अर्थ तो अितना ही माना जाता है मन, वचन और काया के द्वारा विषयेन्द्रियका सयम। यह अर्थ वास्तविक है। क्योकि अुसका पालन करना बहुत कठिन माना गया है। स्वादेन्द्रियके सयम पर अुतना जोर नही दिया गया, अिससे विषयेन्द्रियका सयम ज्यादा मुश्किल बन गया है—लगभग असभव हो गया है।

मेरा अनुभव तो अैसा है कि जिसने स्वादको नही जीता, वह विषयको नही जीत सकता। स्वादको जीतना बहुत कठिन है। परन्तु स्वादकी विजयके साथ ही विषयकी विजय बधी हुअी है। स्वादको जीतनेके लिअे अेक अुपाय तो यह है कि मसालोका सर्वथा अथवा जितना हो सके अुतना त्याग किया जाय। और दूसरा अधिक बलवान अुपाय हमेशा यह भावना बढाना है कि भोजन हम स्वादके लिअे नही, बल्कि केवल शरीर-रक्षाके लिअे करते है। हवा हम स्वादके लिअे नही, बल्कि श्वासके लिअे लेते है। पानी जैसे हम प्यास बुझानेके लिअे पीते है, अुसी प्रकार खाना महज भूख बुझानेके लिअे खाना चाहिये। दुर्भाग्यसे हमारे मा-बाप लडकपनसे ही हममे जिससे अुलटी आदत डालते है। हमारे पोषणके लिअे नहीं, बल्कि अपना झूठा दुलार दिखानेके लिअे, वे हमे तरह-तरहके स्वाद चखाकर हमारी आदत बिगाडते है। हमे घरके अैसे वायुमडलके खिलाफ लडनेकी आवश्यकता है।

परन्तु विषयको जीतनेका स्वर्ण नियम रामनाम अथवा दूसरा कोअी अैसा मत्र है। द्वादश मत्र[] भी यही काम देता है। अपनी-अपनी भावनाके


  1. ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।