अिसका जवाब भी दिया था। अैसे सवालोका जवाब बुद्धिसे नही दिया जा सकता—अुससे खुद बुद्धिको भी सन्तोष नही होता। यह दिलकी बात है। दिलकी बात दिल ही जाने। शुरूमे मैने रामको सीतापतिके रूप में पूजा। लेकिन जैसे-जैसे मेरा ज्ञान और अनुभव बढता गया, वैसे-वैसे मेरा राम अविनाशी और सर्वव्यापी बनता गया, और है। अिसका मतलब यह है कि वह सीतापति बना रहा और साथ ही सीतापतिके मानी भी बढ गये। ससार अैसे ही चलता है। जिसका राम दशरथ राजाका ही रहा, अुसका राम सर्वव्यापी नही हो सकता, लेकिन सर्वव्यापी रामका बाप दशरथ भी सर्वव्यापी बन जाता है—पिता और पुत्र अेक हो जाते है। कहा जा सकता है कि यह सब मनमानी है। 'जैसी जिसकी भावना, वैसा अुसको होय'। दूसरा कोअी चारा मुझे नजर नही आता। अगर मूलमे सब धर्म अेक है, तो हमे सबका अेकीकरण करना है। वे अलग तो पडे ही है, और अलग मानकर हम अेक-दूसरेको मारते है। और जब थक जाते है, तो नास्तिक बन जाते है, और फिर सिवा 'हम' के न अीश्वर रहता है, न कुछ और। लेकिन जब समझ जाते है, तो हम कुछ नही रह जाते। अीश्वर ही सब कुछ बन जाता है। वह दशरथ-नन्दन, सीतापति, भरत व लक्ष्मणका भाअी है भी और नही भी है। जो दशरथ-नन्दन रामको न मानते हुअे भी सबके साथ प्रार्थनामे बैठते है, अुनकी बलिहारी है। यह बुद्धिवाद नही। यहा मै यह बता रहा हू कि मै क्या करता हू, और क्या मानता हू।
हरिजनसेवक, २२-९-१९४६