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बेचैन बना देनेवाली बात

मुक्तिका अर्थ यही है कि आदमी हर तरहसे अच्छा रहे। फिर आप अच्छे क्यों न रहे? अगर अच्छे रहेंगे, तो दूसरोको अच्छा रहनेका रास्ता दिखा सकेंगे, और अिससे भी बढकर अच्छे होनेके कारण आप दूसरोंकी सेवा कर सकेंगे। लेकिन अगर आप अच्छे होनेके लिअे पेनिसिलिन लेते है, हालाकि आप जानते है कि दूसरोंको वह नही मिल सकती, तो जरूर आप सरासर खुदगरज बनते है।

मुझे पत्र लिखनेवाले अिन दोस्तकी दलीलमें जो गड़बडी है वह साफ है।

हा, यह ज़रूर है कि कुनैनकी गोली या गोलिया खा लेना रामनामके अुपयोगके ज्ञानको पानेसे ज्यादा आसान है। कुनैनकी गोलिया खरीदनेकी कीमतसे अिसमें कही ज्यादा मेहनत पड़ती है। लेकिन यह मेहनत अुन करोडों के लिअे अुठानी चाहिए, जिनके नाम पर और जिनके लिए लेखक रामनामको अपने हृदय से बाहर रखा चाहते है।

हरिजनसेवक, १-९-१९४६

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बेचैन बना देनेवाली बात

जब कुछ महीनोकी गैरहाजिरीके बाद गाधीजी सेवाग्राम-आश्रममे लौटे, तो देखा कि आश्रमके एक सेवक की दिमागी हालत खराब हो गअी है। जब वे पहली बार आश्रम मे आये थे, तब भी अुनकी हालत ऐसीही थी। यह पागलपनका दूसरा हमला था। उनकी हालत इतनी खराब हो गई कि उन्हे संभालना मुश्किल हो गया, इसलिए उनके बारे मे फौरन ही कुछ फैसला कर लेने की ज़रूरत पैदा हो गई। इसलिए वधकेि सरकारी अस्पताल के बडे डॉक्टर की यानी सिविल सर्जन की सलाह पूछी गई। उन्होने कहा कि वे वर्धाके सरकारी सिविल अस्पताल में तो बीमार को रख नही सकेंगे, लेकिन अगर उन्हें जेल के अस्पताल में रखा जाय, तो वे उनकी सार-संभाल कर सकेंगे और थोडा-बहुत इलाज भी करेंगे। इसलिए बीमार की और आश्रम की भलाई के खयाल से उनको जेल भेजना पडा। गांधीजी के लिए यह चीज़ बहुत ही दुखदायी हो गअी। अिसने अुन्हे