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नाम-साधनाकी निशानियां
रामनाम जिसके हृदयसे निकलता है, अुसकी पहचान क्या है? अगर हम अितना न समझ ले, तो रामनामकी फजीहत हो सकती है। वैसे भी होती तो है ही। माला पहनकर और तिलक लगाकर रामनाम बडबडाने-वाले तो बहुत मिलते है। कही मै अुनकी सख्याको बढा तो नही रहा? यह डर अैसा-वैसा नही है। आजकलके मिथ्याचारमे क्या करना चाहिये? क्या चुप रहना ही ठीक नही? हो सकता है यही ठीक हो। लेकिन बनावटी चुपसे कोई फायदा नहीं। जीते-जागते मौनके लिए तो बडी भारी साधनाकी जरूरत है। अुसके अभावमे हृदयगत रामनामकी पहचान क्या? अिस पर हम गौर करे।
अेक वाक्यमे कहा जाअे तो रामके भक्त और गीताके स्थितप्रज्ञमे कोअी भेद नही। ज्यादा गहरे अुतरे तो हम देखेंगे कि रामभक्त पच महाभूतोका सेवक होगा। वह कुदरतके कानून पर चलेगा, अिसलिअे अुसे किसी तरहकी बीमारी होगी ही नहीं। होगी भी तो वह अुसे पच महाभूतोकी मददसे अच्छी कर लेगा। किसी भी उपायसे भौतिक दुख दूर कर लेना शरीरी––आत्मा––का काम नही, शरीरका काम भले हो। अिसलिअे जो शरीरको ही आत्मा मानते है, जिनकी दृष्टिमे शरीरसे अलग शरीरधारी आत्मा जैसा कोई तत्त्व नही, वे तो शरीरको टिकाये रखनेके लिए सारी दुनियामे भटकेगे। लका भी जायगे। अिससे अुलटे, जो यह मानता है कि आत्मा देहमे रहते हुअे भी देहसे अलग है, हमेशा कायम रहनेवाला तत्त्व है, अनित्य शरीरमें बसता है, शरीरकी संभाल तो रखता है, पर शरीरके जानेसे घबराता नही, दुखी नहीं होता और सहज ही उसे छोड देता है, वह देहधारी डॉक्टर-वैद्योके पीछे नही भटकता। वह खुद ही अपना डॉक्टर बन जाता है। सब काम करते हो भी वह आत्माका ही खयाल रखता है। वह मूर्छामे से जागे हुअे मनुष्यकी तरह बरताव करता है।
अैसा मनुष्य हर सासके साथ रामनाम जपता रहता है। वह सोता है तो भी अुसका राम जागता है। खाते-पीते, कुछ भी काम करते हुए राम तो अुसके साथ ही रहेगा। अिस साथीका खो जाना ही मनुष्यकी सच्ची मृत्यु है।
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