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सर्वधर्म-समभाव

मेरे पास सवालो और गुस्से भरे पत्रोकी झडी लगी रहती है। पूछा जाता है आप अपनेको मुसलमान क्यो कहते है? आप अैसा क्यो मानते है कि राम और रहीममें कोई फर्क नहीं है? आपने यहा तक कैसे कह डाला कि कलमा पढनेमे आपको कोअी अेतराज नहीं है? आप पंजाब क्यो नहीं जाते? क्या आप बुरे हिन्दु नहीं है? क्या आप पाचवी कतारके नहीं है? क्या आपकी अहिंसा हिन्दुओंको डरपोक और बुजदिल नहीं बना रही है? एक लिफाफा मेरे नाम आया, जिस पर मोहम्मद गाँधी लिखा था।

गाँधीजीने धीरज और शान्तिके साथ लोगों को समझाया "कुछ लोगोंके पापोंके लिए इस्लाम को क्यो और कैसे दोष दिया जा सकता है? मैं सनातनी हिन्दू होने का दावा करता हू। और चूकि हिन्दू धर्म का निचोड और सचमुच दुनिया के सारे धर्मों का निचोड सर्वधर्म-समभाव है, मेरा यह दावा है कि अगर मैं अच्छा हिन्दू हूँ, तो मैं अच्छा मुसलमान और अच्छा इसाई भी हूँ। अपने को या अपने धर्म को दूसरों से ऊँचा मानने का दावा करना धर्मभावना के खिलाफ है। नम्रता अहिंसा की जरूरी शर्त है। क्या हिन्दू धर्मग्रन्थों में यह नहीं कहा गया है कि ईश्वर के हज़ार नाम है? तो रहीम उनमें से एक क्यो नहीं हो सकता? कलमा सिर्फ भगवान की तारीफ करता है और मोहम्मद को उसका पैगम्बर मानता है। जैसे मैं बुद्ध, जरथुस्त और अीसा को मानता हूँ, वैसे ही ईश्वर की तारीफ करने मे और मोहम्मद को पैगम्बर मानने मे मुझे कोई हिचकिचाहट नहीं है।"

हरिजन, २७-४-१९४७