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सच्चा डॉक्टर राम ही है

(बापूजी जब लाडसे बुलाते थे, तो मुझे मनुडी कहते थे।) मैं पास गअी तो कहने लगे––"तुमने निर्मलबाबूको आवाज लगाकर बुलाया, यह मुझे बिल्कुल नहीं रुचा। तुम अभी बच्ची हो, अिसलिअे मैं तुम्हें माफ तो कर सकता हूँ। परन्तु तुमसे मेरी अुम्मीद तो यही है कि तुम और कुछ न करके सिर्फ सच्चे दिल से रामनाम लेती रहो। मैं अपने मन में तो रामनाम ले ही रहा था। पर तुम भी निर्मलबाबूको बुलाने के बजाय रामनाम शुरू कर देती, तो मुझे बहुत अच्छा लगता। अब देखो यह बात सुशीला से न कहना, और न उसे चिट्ठी लिखकर बुलाना। क्योंकि मेरा सच्चा डॉक्टर तो राम ही है। जहाँ तक अुसे मुझसे काम लेना होगा, वहाँ तक मुझे जिलायेगा, और नहीं तो अुठा लेगा।"

'सुशीला को न बुलाना' यह सुनते ही मैं काँप उठी और मैंने तुरंत निर्मलबाबूके हाथ से चिट्ठी छीन ली। चिट्‌ठी फट गयी। बापू ने पूछा––"क्यों, तुमने चिट्ठी लिख भी डाली थी न?" मैंने लाचारी से मंजूर किया। तब कहने लगे––"आज तुम्हें और मुझे अीश्वर ने बचा लिया। यह चिट्ठी पढ़कर सुशीला अपना काम छोड़कर मेरे पास दौड़ी आती, वह मुझे बिल्कुल पसन्द न आता। मुझे तुमसे और अपने आपसे चिढ़ होती। आज मेरी कसौटी हुअी। अगर रामनाम का मन्त्र मेरे दिल में पूरा-पूरा रम जाएगा, तो मैं कभी बीमार होकर नहीं मरूँगा। यह नियम सिर्फ मेरे लिअे ही नहीं, सबके लिअे है। हर-एक आदमी को अपनी भूल का नतीजा भोगना ही पड़ता है। मुझे जो दुःख भोगना पड़ा, वह मेरी किसी भूल का ही परिणाम होगा। फिर भी आखिरी दम तक रामनाम का ही स्मरण होना चाहिये। वह भी तोते की तरह नहीं, बल्कि सच्चे दिल से लिया जाना चाहिये। रामायणमें एक कथा है कि हनुमानजी को जब सीताजी ने मोती की माला दी, तो अुन्होंने उसे तोड़ डाला, क्योंकि उन्हें देखना था कि उसमें राम का नाम है या नहीं। यह बात सच है या नहीं, उसकी फिकर हम क्यों करें? हमे तो इतना ही सीखना है कि हनुमानजी जैसा पहाड़ी शरीर हम अपना न भी बना सके, फिर भी अुनके जैसी आत्मा तो जरूर बना सकते हैं। इस अुदाहरण को यदि आदमी चाहे तो सिद्ध कर सकता है। हो सकता है कि वह न भी सिद्ध कर पाये। लेकिन यदि सिद्ध करने की कोशिश ही करे, तो भी काफी है। गीता माता ने कहा ही है कि मनुष्यको कोशिश करनी