पृष्ठ:Reva that prithiviraj raso - chandravardai.pdf/१००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(९०)

________________

(अ) कंधे बंध संधिथ निजर } पर पहर भध्यान । । तब बहुरयौ पारस झिरिय। फिर भीछ बहुश्रान || ५६ २, स० २५; (ब) छठ्ठि अद्ध बर घटिय । चढ्यौ मध्यान भान सिर ।।। . सूर कंध बर कट्टि । मिले काइर कुरंग बरे !! ७२, स० २७; (स) जय जय सद्द जुबिगनि कर हि } कलि कनवज दिल्लिय बयर ।। सामंत पंच वित्तह छपिंग । भिमत पंच भये विप्महर ।। १७३३,सु ०६१ मृगया-- इस काव्य के चरित्र नायक की परम व्यसन मृगया था। तभी तो देखते हैं कि जहाँ युद्ध से विश्राम भिला कि मृगया का आयोजन किया गया परन्तु इसमें भी बहुधा युद्ध की नौबत आ पहुँचती थी । इस अखेट-काल में हिंसक जन्तुअों को मारने के अतिरिक्त कभी किसी बन की भूमि से गड़ा द्रव्य खोदा जाता था, कभी वीर गण ( प्रेत, प्रमर्थ श्रादि वशीभूत किये जाते थे, कभी शव की चढ़ाई का समाचार पाकर उसे स्थगित कर दिया जाता था और कभी वहीं शत्र से मुठभेड़ हो जाती थी। इस प्रकार की विविधता के कारण रास के मृगया-प्रसंग अधिक रोचक और सरस हो गए हैं तथा साथ ही उनका विस्तार भी अधिक हो गया है। एक आखेट वर्णन के कुछ अंश देखिये : आत्रेट रमत प्रश्रिराज रंग । रिवर उतंग उद्यान दंग || उत्तंग वरुन छाया अकास । अनेक पंधि क्रीडति हुलास ]] सुब्बा सुरास छुई शुरध। तहां भ्रमत भोर बहु बास अंध || फल फूल र नसि लगी साष । नासा सुगंध रस जिह्न चाघ ।। १३ । पन्न प्रचंड फंकर फिरत } देखंत नरह ते करत अंत {{ अनेक जीव तहे करत केलि । बट बिटप छह अवलंब वेलि ।। इक घाट विकट जंगल दुअरि } तहां बीर मूल पिथ्थल कुंआर।। वामंग अंग न्वामंड राय । चूकै न मूठि सौ काल घाई ।। १४, स० १७ | इससे भी अधिक साङ्गोपाङ्ग वर्णन स० २५, छ० ५२-६७ में द्रष्टव्य है | वर्णन-विस्तार के साञ्च उसकी संश्लिष्ट योजना भी उल्लेखनीय है । पर्वत--- (अ) “प्रथम समर्थ' में हिमालय का अपने पर्यंत पुत्रों से बातालाप (छं० १७०-६२), अर्बुद नाग द्वारा नंदगिरि को उठाकर उसे गह्वर में रखकर घूर देने, शिव के अचलेश्वर नाम से वहाँ स्थित होने तथा अर्बुद नायर के