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मोर सोर चिहुँ ओर। घटा साई बधि नभ ।। अच दादुर भिम गुरन । रटन चाति रजत सुभ ।। . नील बरन बसुमतिय । एहिर झांभ्रन अर्लकिय ।। चंद वधू सिर व्यंज । धरे बसुमत्ति लु रञ्जिय ।। । बरर्षत बूंद धन मेव सर । तब सुमिरै जद्दव कुअरि ।। नन हंसे धीर धीरज सुतन । इत्र फुई मन मथ्थ करि ।। ३५, कीचड़ सूख गया, सरितायें उतर गई, वेल्तरियाँ कुम्हला गई, बादलों से रहित पृथ्वी ऐसी प्रतीत होती है जैसे पति के बिना स्त्री । निर्मल कलाओं सहित चन्द्रोदय हुअा, कन्दर्प प्रकट होकर प्रकाश में उदित हुआ, नदियों का जल नीचा हो गया, मवरण (धू बट) स्त्रियों के नेत्रों की लज्जा का हर करने लगे, मल्लिका के पुष्पों से वायु सुगन्धित हो गई, संयोगिनी स्त्रियाँ अपने पति के श्रालिंगन पाश में बँध गाई : सुकिक पंक उत्तर सरित ! गय बल्ली कुमिलाइ । जलधर चिन ज्यों मेदिन । ज्यों पतिहीन त्रियाइ ।। ४४ नम्मलिये कला उग्गयौ सोमः । कंदर्प प्रगट उद्दि त्त व्योम ।।। सरिता सु नीर शाह निवांन । पंगुरन हरै न्नियो द्रग लजाने । मल्लिका फुल्ल सुग्ध बाय । संजोगि त हिँ लुप्पटाइ ।।....४५,सं०३५ बेलिकार पृथ्वीराज राठौर ने भी शरद-बयान में लिखा है---नीवर जल जिम रह्यौ निवाणे निधुवन लज्जा जी नयन' अर्थात् जल निर्मल होकर मीची भूमि में चला गया जिस प्रकार तजा रति-काल में स्त्री के नेत्रों में जा रहती हैं। ऋतुओं के इस प्रकार के वर्णन के अतिरिक्त युद्ध की उपसा कहीं वसंत से और कहीं वषों से दी गई है । इन स्थलों पर भी ऋतु-बर्णन मिल जाता है । सुसज्जित शाही सेना की व से पूर्णोपम स० ६६, ॐ० ८३५-४२ में देखी जा सकती है। हिंदू सेना की पावस से उपमा देखिये ।। झरि पावस सिर बर प्राहारं । बरषद रुद्धि धरं छिछवारं || श्रग विज्जुल जोगिनि सिरधार । वरी सौ जंबू परिवार ।। १०३२ केटि टूक करें जिनके किरयं । भनौं इ'द्रवधू धरमें रचयं ।। झमक्कै सषरगीन धनि बजै । सुनि बद्ददि झिंगुर सद्द लऔं ।। १०३३ लपटांई सुकि वैल तर } पर भने रंभन रंभ अरे । अकुरी हि बैलि सुबीर बरं । चई पवन पवस झर झर ॥ ३०३४, ०६६