पृष्ठ:Reva that prithiviraj raso - chandravardai.pdf/१०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(९३)

________________

वन वन का वर्णन भृगया के साथ मिला जुला प्राप्त होता है जो अनुचित नहीं क्योंकि अावेद का वही स्थल है । विशाल जंगल देश के स्वामित्व के कारण भी जंगलेश उपाधि वाले पृथ्वीराज का वन में अलैङ मग्न रहना स्वाभाविक ही था । वन-वन के एक प्रसं! देखिये: वन में शिकार के लिये पृथ्वीराज के पहुँचने पर हाँ का हुआ और पशुश्रों में भगदड़ मच गई । कवि चंद सोर चिहुँ ओर घन | दिश्व सद दिग अंत भौ ॥ सकिय सयल्ल जिम रंक ! इस अरण्य अत के भौ ।। १२: कमार पृथ्वीराज जंगल की भूमि में अडेट कर रहे थे। उनके साथ शूर सामंत, गहन पर्वतों और उनकी फोश्रों में भ्रमण कर रहे थे । एक सहस्त्र श्वान, एक सौ चीते, मन सदृश वेग वाले दो सौ हिरन उनके साथ थे | वहाँ उस सघन बन में कवि चंद मार्ग भूल कर भटक गया : सम विषम विहर वन सघन घन् । तहाँ सथ्थ जित तित है ।। भूल्ल्यौ सुसँग कवियन वनह ई और नहीं जन सँग दुअ.}। १३; यह वन इस प्रकार का थ? : विपन विहर ऊपल अकल । सकती जीव जड जात ।। घसंपर बेली बिटए । अवलंबिव तरल नाल ।। १४ सघन छह रवि करन चत्र । वर तर पसु भजि जात ।।। सरित सोह सम पवन धुनि } सुनते श्रदन झहनात ।। १५ गिरि तट इके सरिता सजल । झिरत झिरन चहुँ पास है। सुतर छाँह फल अमिय सम । बेली : विसद विलास ।। १६, १०६; यहां पर कवि को एक ऋषि के दर्शन हुए थे ( छं०१७-८, स०६ ) । | उम चरित्र' में स्वयम्भु देव का वन-वर्णन भी देखिये : तहि तेहए सुन्दरे सुवहे । अारण • महराय • जुत्त रहे । धुर लक्ख रहवरे दासरहिं । सुर-लीलए पुणु विहरत महि । तं कएह-त्रएएए.इ मुए विगया | वा कहिम णिहालिय मत्तगया । कत्थवि पंचाणक्त गिर-गुहेहिं । मुक्तावलि विविखरंति णहें । कथवि उङ्काविय सण-सया । णं अडविहे उड्डु विणण गया । कुत्थवि कलावं याचति वर्णं । विई, राङ्कान। जुयइ-जणे । कृथिवि हरि भय-भयाई । संसारह जिह पावई याई । स्थधि गुणा-विह रुख-राईं। ए महि-कुल-बहुअहिं’ रोमराई ।।३६५१