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अरु थापे लिव सुखधाम' कहकर समाप्त हो जाता है। अस्तु, प्रत्यक्ष है झि सागर का प्राकृतिक सौन्दर्य मानस में नहीं है। | तुलसी की अपेक्षा उनके पूर्ववर्त जायसी ने अपने पदमावत’ ॐ सागर का कुछ अधिक रूप दिखाने की चेष्टा की है ! यो राजा रतनसेन और उनके साथी योगियों की सिंहल-यात्रा वाले दोहित खण्ड’ ( १४ ) में| लमुद अपार सरग जनु लागः । सररा न घाल गनै वैरागः ।। ततखन थाल्हा एक देखावा ! जनु धौलागिरि परजत वा ।। उठी हिलार जौ चाल्ह नराजी | लहरि अकास ला नि भुइ बाजी ।। | इसके उपरान्त बड़ी मछलियों और राज-पंखियों की कौतूहल पुरा चर्चा हैं । और अागे सिंहल-कुमारी पदमावती से परिणय करके समुद्रमार्ग से घर लौटते हुए राजा रतनसेन बाले ‘देश यात्रा खंड ( ३३ } में कवि को सागर के प्रसंग में वर-कुछ बयान करने का एक अवसर और मिल गया है : जहाँ समुद मझधार मँड़ारू । फिरै पनि पातार • दुश्रारू ।। फिरि फिरि पनि ठाँव हि सरै । फेरि न निकसै जो तहँ परै ।। जिसके साथ महिरावण-पुरी अादि का भी ललित प्रसंग है। अस्त-वन में संस्कृत ऋौर अपभ्रश ३ कवि अधिक निष्ठ पाये जाते हैं । क्रान्तदशी आदि कवि वाल्मीकि ने समुद्र का वर्णन इस प्रकार किया है-- जो नक्र और ग्रह के कारण भयंकर है, दिन की समाप्ति और रात्रि के ग्राम में जो फेनराशि से हँसता हुआ तथा लहरियों से नाचता हुआ सा प्रतीत होता हैं । जो चन्द्रोदय के समय प्रत्येक लहर में चन्द्रमा के प्रतिबिम्बित होने से चन्द्रमय दीख पड़ता है और जो प्रचंड वायु के समान वेग वाले बड़े-बड़े ग्राह तथा तिमि तिमिङ्गलों से भरा हुआ है। उसमें प्रदीप्त फणवाले सर्प रहते हैं, अन्य अनेक बड़े बली जलचर भरे हैं तथा अनेक पर्वत छिपे हुए हैं। असुरों का निवास स्थान यह समुद्र अगाध है, जलचरों के कारण दुर्गम है तथा नौका आदि के द्वारा इसके पार जाना असम्भव है; मकर तथा सर्प के शरीर के समान प्रतीत होने वाली इसकी लहरें प्रसन्नता के साथ ऊपर उठती और नीचे जाती हैं। चमकीले जल के छोटे-छोटे कण बिखरे हुए अमृत-चूर के समान विदित होते हैं, इसमें बड़े-बड़े सर्प और राक्षस निवास करते हैं तथा यह पाताल सदृश गहरा है। इस प्रकार सागर प्रकाश के समान और आकाश सागर के समान जान पड़ता है, उनमें कोई भेद नहीं दिखाई देता है सागर का जल श्रकाश