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( ६७ ) दिङ दिड लागी समूह । उनकद सु भगिय ।। निष लज्जानिय नयन भयन माया रस पछि || छल बल कल चहुन } बात अप्पन भेजे !! दोष त्रीय मिट्टयौ । उभय भारी मन रंजे !! चौहान हेथ्थ बाला गहिय ! सो झोपम कवि चंद कहि ।। मानों कि लता कंचन लहरि । मत वीर राजराज यहि ।। ३७४, स० २५ उत्साह के बाद रासो में रति भाव को ही स्थान मिला है जिसमें संयोग-शृङ्गार की अधिकता के कारण सम्भोग के अनेक अप्रतिम रूप देखने को मिलते हैं। विश्वम्--- संयोगिता से गन्धर्व विवाह करके, जयचन्द्र के गंगातट वाले मेहत से जब पृथ्वीराज अपने सामंत को घेरे हुए पंगराज की सेना से युद्ध करके अपने दल में चले गये, उस समय दुश्चिन्ताअों से पूरा शंकित हृदय राज कुमारी संज्ञा-शून्य हो गई । इसखिय? पंख कर रहीं थीं, बनसोर ( कपूर ) और चंदन के लेप किये जा रहे थे । अनेक उपाय हो रहे थे परन्तु चित्र लिखी ही वह बाला अचेत पड़ी थी। उसके मुंह से हाय शब्द निकल पड़ता था । जब सखिय उसके कान में पृथ्वीराज के नाम का मंत्र सुनाती थीं तब वह बलहीना क्षण भर को अपनी आँखें खोल देती थी’ : बाली बिजन फिरन ! चंद चोरी क्रितम रस ।। के घन सार सुधारि । चंद चंदन सो भति. लस ॥ बहु उपाय बल करत । बात चेतै न चित्र मुथ ।। है उच्चार उचार | सुखी बुल्लयति यति छ ।। जनै सु अलि । नाम मंत्र *प्रथिराज बर।। आवस निवत्त अगदि भय । तं निबलह द्रिग छिनक कर ।।१२६५, स०६१ । (अ) ढंढा दानव ने योगिनिपुर में यमुना-तट पर हारीफ ऋषि को देखा जिन्होंने उसे तपस्या करने का उपदेश दिया.. ढिंग जुगिनिपुर सरित तट । अचधन उदक सु प्राय ।। लहू इक तपस तप तपत | बीली ब्रझलयि {}५६० तीली पुल्लिथ ब्रह्म । दिखि इक असुर अदभुत ।। दि६ देह चष सीस । मुत्र करुना जस जपत ।।