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( १०६ ) द तासी ने राजसूय शब्द से निष्पनि बतलाई ११ पं० सोहनलाल्त विष्णुलाल पाँङ के अनुसार इव्द संस्कृत के ! वा सक से है और संस्कृत भाषा में रास के इ, ध्र, क्लो, श्रृंखला, विलास, रार्जन, नृत्य और कलहले आदि के अर्थ र रासक के अन्य अथवा दृश्य काव्यादि के अर्थ परक प्रसिद्ध हैं । मालूम होता है कि कार ने संस्कृत भार शब्द् के सह रास शब्द का अर्थ से महाव्य के अर्थ में ग्रह और प्रयोग किया हैं । यह लो शब्द छ ज झ झन में भी अचलित नहीं है किन्तु अन्वेषण करने से वह काव्य के अर्थ के अतिरिक्त अन्य अनेक अर्थों में प्रयोग होता हुशा विद्वानों को दृष्टि अवेग, जैसे-हमने बौदे के दर के एल ३}ो जय हैं। कल वहादुर सिंह जी की बैठक में ददर ने गदर । ३ ना हो, फिर मैंने भरतपुर के सूरजमल को रास गाय से सब देव ही रह गये। अजी ये केही राह है । मैं तो करले एक इल में फँस गयौं या दू तुमारे वह नाय अछि सवय जी राम पाल बड दरिया है, चाके में कैंस के रूपैया मत बिगाड दो । मनै अाज बिन को हल निपटाय दीनौ है । देखौ सब रासो के संग रासो है, बुरी त भनौ } तथा लुगाइयाँ भी गाया करती हैं--- गीत । मत काच तोन्ड राखियो धानी गुर पल, पकवई, सत बा । इत्यादि ।। १ ।। जिन लोगन की राह उठे तौन्ह के चाक उठायेगा, हल जोत नहीं पछतायेगा | इत्यादि ।। २ ।। बनारस के पं० विन्धेश्वरीप्रसाद दुबे ने 'जयशः शब्द के सौ’ को निकला हुआ। भाना । प्राकृत में ज के स्थान पर ये हो जाता है जिससे राय यश: हुआ और इससे उनके अनुसार कालान्तर में सा बन गया । मः म० डॉ० हर प्रसाद शास्त्री का कथन है कि राजस्थान के झट, चरस आदि रासा (= क्रीड़ा ) या रासा । - झगड़ा) शब्द रासो' शब्द का विकास बतलाते हैं । राजपूतान में बड़ा झड़ा सा कहलाता है, और ( १ ) इस्त्र द ला लितेल्यूर दुई दुस्तानी, प्रथम भारी, पृ० : ( २ } शृथ्वीराज रासो, १ नागरी प्रचारिश सभा ), उपसंहारिणी cिuी, पृ० १६३-६४; १३} वही, प्रितिसिनरी रिपोर्दै, पृ० २५५ ! ..