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भी जब कोई एक आत एर अधिक वार्तालाप करता हैं तो कहा जाता है--- *क्या रासा करते हो' । जैनों ने अनेक रासा' ग्रंथों की रचना की है। इतना कहकर शास्त्री जी का निष्कर्ष हैं कि पृथ्वीराज-रासा' का अर्थ होरार पृथ्वीराज की क्रीड़ा या साहसिक कार्य । ६० रामचन्द्र शुक्ल ने सिलदेव रासो में कई बार प्रयुक्त हुए रसायण' शब्द को रासो' शब्द का मूल माना है और वो ललिता प्रसाद सुकुल विविध प्रधान रस की निष्पति सूचक रसायण' ( अर्थात् रेस का अयन ) शब्द द्वारा विकसित रासो' शब्द को सो साहित्य की भरपूर सार्थकता सिद्ध करने वाला सानते हैं। डाँ० दशरथ शर्मा ने सिद्ध किया है कि रास प्रधानतः गान-युक्त नृत्य-विशेष से क्रमशः विकसित होते-होते उपरूपक और फिर उपरूपक से वीर रस के घद्यात्मक प्रबन्ध में परिणत हो गया । ( १४ ) शत्रु-दल का दलन करने वाले, विग्रहराज चतुर्थ उपनाम वीसलदेव की मृत्यु के उपरान्त ढुंढा दानव की ज्योति से जन्म पाने वाले सोमेश्वर के पुत्र वज्रांग-बाहु पृथ्वीराज की की िचंद ने रासो में वर्णन की क्योंकि पृथ्वीपति पृथ्वीराज क्षत्रियों के छत्तीस कुलों द्वारा सम्मानित हैं, नख से शिव तक अपरमित तेज वाले तथा राज्योचित बत्तीस गुणों से मिथ्थिराज पति प्रिथ्थपति ) सिर मनि कुली छत्तीस ।। नष सिष पर मित लस त । ते गुन बरनि बतौस ।। ७५८, स० १ इस यशस्वी सम्राट की कीर्ति अमर करना उसके दरबारी कवि के लिये स्वामि-धर्म तो था ही परन्तु एक रात्रि को रस आकर उसकी पत्नी ने दिल्लीश्वर का यश आदि से अन्त तक वर्णन करने के लिये कहकर--- समयं इक निसि चंदं । वाम वत्त वद्दि रस पाई ।। दिल्ली ईस गुनेयं । कित्ती कहो आदि अंताई ।। ७६ १,०१, मानों अभिलषित प्रेरणा प्रदान कर दी । यही रासो का आदि पर्व हैं ।। फिर पत्नी की शंका का समाधान करने के लिये कवि ने दूसरे समय में ‘दशावतार की कथा कहीं और उसे अनंत कहकर अपने सिर पर चौहान ( से उद्धार ) का भार तथा र्थोड़ी आयु का उल्लेख किया--- १ १ } बही, प्रिलिमिनरी रिपोर्ट, पृ० २५; ( २ ) हिंदी साहित्य का इतिहास, सं० २००३ वि०, पृ० ३२: ( ३ ) साहित्य जिज्ञासा, पृ० १२७; ( ४ ) राक्षो के अर्थ कई क्रमिक विकास, साक्लित्थ सन्देश, जुलाई १६५१ ६६ ।