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{ १६५ ) शान्तर एक दान पहुची नरेस कैंमासह सुक्यौ । उर उप्पर अरहर वीर कऽयंतर चुक्यौ ।। बियौ दान संधान हुन्य सोमेसर नंदन। गाढौं करि निग्रह्यौ पनि गयौ संभरि धन।। थल छोरि न जाइ अभाग गाड्यौ गुन गहि अरे । इम कं, चंद वर दिया कहा निषट् इय प्रलौ ।। –रासी, पृष्ठ १४९६, पद्य २३६ अगहुम गहि दाहिसोरिघुराये स्वयं केरु, हु भन्छ मम ठत्र श्री एहु जम्बुये ( प १ ) निर्ति गरे । सह ना मा सिक्ख जइ सिविखविड बुझई, जैइ चंदबलिई मन पर मक्खर सुज्झइ । पहु हबियि सई भधिनी सधैंभरि सउाई सम्भरिसि, कई बास बिश्रास विसट्टएि मन्छिबंधिबद्ध मरि सि । | ---ए बही, पद्यांके (२७६) रूपान्तर अगह मगह दाहिम देव रिपू । प्रियंकर । कर सन्त जिन के मिले जंबू वै जंगर ।। सो सहनामा सुनौं एह परमार्थ सुज्झै । अत्रै नंद बिर६ विव क्रोई एह न बुज्झै !! प्रथिराज सुःवि संभरि धनी इह संभल संभारि रिस । मास बलि छ ब्रसीठ विन म्लेच्छ बंध वंध्य मरिस ।। ---रसी, पृष्ठ २१८२, पद्य ४७६ त्रिहि लक्ष तुषार सवल पपअई' जसु ह्य, बदसय मय मत दति जति महाभय । वासलक्ख पायके सफरफारके धणुद्धर, हूसई अरु बलु यान सङ्कु कु जाण्इ तांह पर ।। छत्तीसलद नराहिवइ विविविडि” हो किम' भयउ, जइन्चन्द्र ने जाएइ जल्हुक गयड़ कि मूड कि धरि गये।। ---पृष्ठ ८८, पद्यांक (२७८)