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होता गया है इसका परिणाम यह हुआ कि आज हमें चंद की उस मूल रचा का अस्तित्व ही विलुप्त सा हो गए। मालूम दे रही हैं । उपयंक़ अपभ्रंश छन्दों में से अन्तिम दो जे पुरातन प्रवन्ध संग्रह के जयचंद प्रबन्ध से उद्धत किए गये हैं, चंद द्वारा नहीं रचे गए हैं वरन् उसके न बाब’१ पुत्र जल्टु केइ (जल्ह कवि) प्रणीत हैं जो चंद छंद सायर तिरन' ३ जिहाज गुन साज कवि था तथा जिसके लिए पुस्तके उल्हन हथ्थ ६ चलि गज्जन नप काज’४ का उल्लेख है ! मुनराज की शोध का उल्लेख करते हुए बाबू श्यामसुन्दर दास ने लिखा--- अब प्रश्न यह उठता है कि कौन किसक रूपान्तर है। क्या आईनिक रसो का अपभ्रश में अनुवाद हुआ था अथवा असली रासो अपभ्रंश में रचा गया था, पीछे से उसका अनुवाद प्रचलित भाषा में हुआ और अनेक लेखकों तथा कवियों की कृपा से उसका रूप अौर का और हो गया तथा क्षेपकों की भरमार हो गई। यदि पृ सो अपभ्रश में मिल जाता तो यह जटिल प्रश्न सहज ही में हल हो जाता । राजपुताने के विद्वानों तथा जैन संग्रहालयों को इस ओर दत्त चित्त होना चाहिए ।'५ बाबू साहब की यह शंका कि कौन किसका रूपान्तर है अधिक संगत नहीं ! अनेक विद्वान् इस तथ्य से सहमत हैं कि पूर्ववर्ती भाग्रथों की कृतियों के रूपान्तर परवर्ती भाओं में हुए हैं परन्तु परवर्ती भाषा की कृतियाँ पूर्ववत भत्रों में रूपान्तरित नहीं की गई हैं ।६ श्रेस्तु यह निश्चित है। की पृथ्वीराज रासो का मूल प्रणयन अपभ्रंश में हुआ था परन्तु यहाँ पर यई भी स्मरण रखना होगा कि वह उत्तर कालीन अपभ्रंश थी जिस पर तत्कालीन कथ्य देश भाषा को छrg थी । ० सुनीति कुमार चटर्जी ने भी अपभ्रंश छन्दों को शोध होने पर लिखा----‘निर्विवाद निष्कर्ष यह है कि १दहति पुत्र कविचंद कै । सुंदर रूप सुजाने । इक जल्लह गुन बावरौ । गुन समंद सुलि भान ।। ६४, स० ६७ ; २-- छेद ८३, स० ६७ ; ४-छंद ८५, ले० ६७ : ५-पृथ्वीराज रासो, ना० प्र० प०, वर्ष ४५, अंक ४, मात्र सं० १६६७ . ६०, धृ० ३४६-५-२ ; ६-डे बोध थेन्द्र धायी ;