पृष्ठ:Reva that prithiviraj raso - chandravardai.pdf/१३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(१२८)

________________

है न कि राजस्थान के । यहाँ पर जहाँ यह कहा गया कि रासो राजस्थानी या डिएल *प की कृति नहीं यहाँ पर वह पश्चिम हिंदी अ -41 में सूर, सेनापति, रसखान, शादि की कृतियों के समान भी नहीं कर यह ऐसी ब्रजभाषा की कृति है जिसपर प्रादेशिक डिल की स्वाभाविक छाप है, इसीलिये राजस्थान में उसे पिंगल-रचना कहे जाने की प्राचीन अन श्रति है। पं नरोत्तम स्वामी ने रालो को चिंग्ल-रचना कहते हुए उक्त लेखक द्वय से राई का व्याकरण निभा कर इस भ्रम का निराकरण करने का अाग्रह किया था। जिसके उत्तर में उन्होंने लिखा--रास के लघु रूपान्तों की भाचा अधिकाधिक अपभ्रश के निकट पहुँचने लगी। कई स्थल तो ऐसे हैं कि सामान्य परिवर्तन करते हैं। छा अपभ्रश में परिवर्तित हो जाती हैं, क्रान्तिसागर जी ने जो प्रति ढूंढ निकाली है उसकी भाषा मुलि जी के मतानुसार अपभ्रंश हैं । "हम तो वास्तव में इसे डिंगल और पिंगाल के झगड़े को व्यर्थ समझते हैं ! परवती रूपान्तरों में भावः एक नहीं खिचड़ी है जैसा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ( दृहद् रूपान्तर के लिये ) लिखा है, इसकी भाषा विलकुल बेठिकाने हैं। इसमें व्याकरण आदि की कोई व्यवस्था नहीं । कहीं कहीं तो इषा अाधुनिक साँचे में ढली दिखाई पड़ती है। क्रियायें नये रूपों में मिलती हैं पर साथ ही कहीं भी अपने असली प्राचीन साहित्यिक रूप में पाई जाती है जिसमें प्राकृत और अपभ्रंश शब्दों के साथ साथ शब्दों के रूप और विभक्तियों के चिन्ह पुराने ढंग के हैं ।' डॉ० धीरेन्द्र वर्मा ने भी इस विषय में अपनी कोई निश्चयात्मक सम्मति नहीं दी है। वास्तविक वस्तु तो मूल ग्रंथ है और उसके विषय में सभी अधिकारी विद्वान् इस परिणाम पर पहुँचने लगे हैं कि इसकी भाषा अपभ्रंश है । मरु, टक्क शौर भादानक ये तीनों मरुदेश के अंतर्गत या सर्वथा पाश्र्ववत थे जहाँ की मूल भाषा अपभ्रंश थी। इन प्रदेशों की देश भाषा में रचित राजस्थान के सम्राट और सामन्तों की गौरबमयी गाथा को हम चाहे अपभ्रश की कृति मानें चाहे प्राचीन राजस्थान की देश्य भाषा की, इसमें वास्तविक भेद ही क्या हैं । 3 । १. पृथ्वीराज रासो की भाषा, राजस्थान भारती, भाग १, अंक २-३, जुलाई-अक्टूबर सन् १६४६ ३०, पृ० ५१-३; २, पृथ्वीराज रासो की भाषा, राजस्थान भारती, भाग १, अंक ४, जनवरी सन् १९४७ ई०, पृ० ४६५१ ;