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( १३१ ) रूप कहना पड़ेगा जिसमें वैठिकाने की मात्रा होते हुए भी उसका अधिकांश ब्रज-भाषा व्याकरण पर आश्रित है और जिस पर युगोन प्रादेशिक राजस्थान का प्रभाव अन्य भाषागत विशेषताओं की अपेक्षा अधिक है। रासो के अादि समय में लिखा है-जो पढ्य देत रातो सु गुर, कुमति मति नहिं दरसाइय” अर्थात् जो श्रेष्ठ गरु से सो पढ़ता हैं वह दुर्मति का प्रदर्शन नहीं करता । इस युग में रासो-इंछित सद्गुरु वही है । प्राचीन ब्रज, डिंगल और गुजराती भावायें तथा उनके साहित्य, संस्कृत, प्राकृत और अपश भाषा तथा उनके साहित्य, तुलनात्मक झापा-बिज्ञान, राजस्थान की प्रादेशिक परम्परायें, इतिहास, काव्य-शास्त्र, प्राचीन कथासूत्र, काव्य-रूढ़ियाँ, भहाभारत, पुराण यौर नीति-ग्रन्थों से कम से कम भलीभाँति परिचित है। वहीं राजस्थान के इस गौरवपूर्ण काव्य को समझने तथा प्रक्षेपों को दूर करने का वास्तविक अधिकार है। अाज हमें ऐसी प्रतिभा वाले ऋनेक सद्गुरुयों की नितान्त आवश्यकता है जो इस महाकाव्य का उद्धार करें । रासो-काव्य-परम्पर। | अपभ्रंश, गुजरात और राजस्थानी भाषाओं के अनेक रास, रास और रालो काव्य-ग्रन्थ साक्षात् और सूचनई रूप में प्रकाश में आ चुके हैं जो ‘पृथ्वीराज-रासो' से पूर्व और पश्चात् की रासो-काव्य की अनुरा परम्प के प्रतीक हैं। श्रीमद्भागवत में ‘रासोत्सवः सम्प्रवृत्तो घमण्डलमण्डित: २ के रास शब्द का प्रयोग गीत-नृत्य के लिये हुआ है जिसका बर्णन इस प्रकार है‘जिनके मुख पर पसीने की बूंदें झलक रही हैं और जिन्होंने अपने कैश तथा कटि के वन्धन कैसे कर बाँध रखे हैं वे कृ-प्रिया' गोपियाँ भगवान् कृष्ण' का यशोगान करती हुई विचित्र पद-विन्यास, वाहु-विक्षेप, मधुर मुसकानयुक्त कुटि.विलास, कैमर की लोच, चंचल चंचल और कपाल कै मास हिलते हुए कंडलों के कारण मेथर्मल में चमकती हुई चपल्लर के समान सुशोभित १. छं० २, स० १; ३. स्कंधे १७, क्षध्याय ३३, इतकं ३ ।