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१३६ ) पुरातन कथा-सूत्र भारतीय प्राचार्यों ने ध्वनि, अलंकार, वक्रोक्ति, रस आदि जिसके भी लक्षणों पर प्रकाश डाला है, दे. सई काव्य से सम्बन्धित हैं । अज्ञात सनीक ने जब अपना सुप्रसिद्ध त्र--- कवीनां निकपड़े बदन्ति' अर्थात् 41द्य को कवि' की कसौटी कहते हैं कहा, तब उसका अभीष्ट साधारण गद्य से नहीं वरन् गद्य-व्व से था। कवि अपने काव्य का सृजन अपनी अनुभूति को प्रत्यय और साधम्र्य द्वारा अभिव्यक्त करके करता है । कात्र के अर्थ-लोक, अनुति - लोक अश्या चेतना-लोक का पकड ही श्रादिकावे वाल्मीकि के शब्दों में उसकी क्रान्तदशिता की परीक्षा है । कवि की अनुभूति को शरीर प्रदान करने वाला अलङ्कार होता हैं । अनजाने लोकों का अवगाहन अपनी कल्पना द्वारा करता हुआ कवि अतङ्कार द्वारा उन्हें मूते करता है। अस्तु, काव्य कल्पना पर आश्रित है। और कल्पनः अलङ्कार द्वारा साकार होती है। यही स्थिति ‘कथा-काव्यों में भी है । कथा का उद्गम निःसन्देह अति प्राचीन हैं परन्तु संस्कृत के आचार्यों ने जिस ‘अथा' के लक्षण दिये हैं वह साधारण कथा नहीं वरन् कथा-काव्य' है । छठी ईसवी शताब्दी के भामह ने अख्यायिका और कथा का भेद करते हुए कथा की निरूपण इस प्रकार किया है.--कथा में वक्त्र और अपवन छन्द नहीं होते, उच्छवासों में इसे नहीं विभाजित करते, संस्कृत, असंस्कृत (प्राकृत) और अपभ्रश में इसे कहा जा सकता है, स्वयं नायक इसमें अपना चरित्र नहीं कहता बरन किन्हीं दो व्यक्तियों के वाताँलाए.रूप में यह कही जाती है । परन्तु सातवीं शती के देशी ने आख्यायिका और कथा को एक पंक्ति में रखकर उनका भेद यह कहकर मिटाया---'कथा, नायक कहे चाहे दूसरा, अध्याय विभाजित हों अथवा नहीं और उनका नाम उच्छवास, हो चाहे लम्भ तुथा चाहे बीच में यकत्र और अपवक छन्द अावें चाहे न आयें, इन सबले कोई अन्तर नहीं १-~-न कत्रा परवकत्राभ्यां युक़ा नोच्छवासवत्यपि ।। संस्कृताऽसंस्कृती चेष्टा कथाऽपभ्रशभाकृतथा {} २८ अन्यैः अचरिते तस्य नायकेन तु नौच्यते । ।' स्वगुणाविष्कृत कुदभिजातः कथं अनः || १,२९, काव्यालङ्कार;