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यौ प्रिय हो अपनी प्रिय पत्नी सावित्री के कहने पर सुनाया था। 'लीलावई' की भाँति -पृथ्वीराज-रास’ का प्रणयन भी एक रात्रि को दिल्लीश्वर (पृथ्वीराज की कीर्ति अादि से अन्त तक सुनाने की कविपत्नी की जिज्ञासा-पूर्ति-हेनु’ हुआ है : समयं इक निति चंद । वास व वहि रस वाई ।। दिल्ली इस गुनेयं । किसी कहो यादि अंताई 13 १,५०६१ ; एक दिन कवि चंद ने अपने भवन में (दिल्ली के सम्राट की) कथा कही । जैसे-जैसे सारंग नेत्री उसे सुनती और समझती जाती थी वैसे ही वैसे अौर चूछती जाती थी : एक दिन कवि चंद कथ} कही अप्प भोन ।। जिम जिम श्रवनत संभरी । तिम् पुछि सारंग नैंन ।। १,७६२, फिर प्रियतमा ने प्रिय से पूछा कि दानव, मानव तथा राजा की कीर्ति से क्या लाभ है। कह्यौ कंत सौं केति इम । हौं पूछों गुन तोहि ।। | के दानव मानव सु को। को नृप कित्तिक होहि ।। १,७६३, ( इसके बाद का कुछ प्रसंग छूटता हैं परन्तु छन्द-संख्या में कोई व्याघात नहीं पड़ता, वह अक्षरशः गति से अबाधित बढ़ती है ।। चंद ने विविध उदाहरण देकर बताया कि हरि-भक्ति के बिना मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती। उसकी पत्नी ने कहा कि हे समस्त विद्याओं के ज्ञाता, उस विश्वचितेरे के चित्र बनाओ, चौहान की कीर्ति-स्तवन से क्या लाभ है; ज्ञानतत्व ले रहित ३९ शरीर पाँच इन्द्रियों के द्वारा पाँच विषयों में बँधकर नाच रहा है; शाशी रूपी वेगवती नदी में मनोरथ रूपी जीवों का संचय हो रहा है, तृष्णा रूपी उसकी तरंगें हैं, राग रूपी ग्रह हैं; चौहान की कीर्ति-कथन से क्या होगा, त्रिभंगी (कृश्ण) का स्मरण करो; मूढ़ मन मोह में विस्तृत हो रहा है और आशा रूपिणी नदी चिन्ता-तट रूपी शरीर १. एमेय सुद्ध-जुयई-मणोहरं पाययाए भुसाए । पविरलदेसिं-सुलत्रं कसु कह दिव्व-माणुसियं ।। ४१ तं तह सोऊण हुने भणिय उब्वैिव-वाल-हरिणच्छि । जइ एवं ता सुव्उ सुसंधि-वंधं कहा-वत्थं ।। ४२ ; लीलावई, सम्पा० डॉ० अदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, भारतीय विद्य-भवन, बबई, सं० २००५ वि०; २. ॐ ७६४-६५, स० १; ..